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________________ www.vitragvani.com 208] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 रे भाई! तू किसी भी प्रकार से तत्त्व का कौतुहली हो। हित की शिक्षा देते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि हे भाई! कुछ भी करके तू तत्त्व का जिज्ञासु हो... और देह से भिन्न आत्मा का अनुभव कर। देह के साथ तुझे एकता नहीं है किन्तु भिन्नता है... तेरे चैतन्य का विलास देह से भिन्न है; इसलिए तेरे उपयोग को पर की ओर से छोड़कर अन्तर में झुका। पर में तेरा नास्तित्व है, इसलिए तेरे उपयोग को पर-तरफ से वापस हटा। तेरे उपयोगस्वरूप आत्मा में पर की प्रतिकूलता नहीं है। मरण जितना कष्ट (बाह्य प्रतिकूलता) आवे तो भी उसकी दृष्टि छोड़कर अन्तर में जीवन्त चैतन्यस्वरूप की दृष्टि कर। मृत्वा अपि, अर्थात् मरकर भी तू आत्मा का अनुभव कर - ऐसा कहकर आचार्यदेव ने शिष्य को पुरुषार्थ की प्रेरणा दी है। बीच में कोई प्रतिकूलता आवे तो तेरे प्रयत्न को छोड़ मत देना परन्तु मरण जितनी प्रतिकूलता सहन करके भी तू आत्मा को नजर में लेना... उसका अनुभव करना। मुझे मेरे आत्मा में ही जाना है... उसमें बीच में पर की दखलगीरी कैसी? प्रतिकूलता कैसी? बाहर की प्रतिकूलता का आत्मा में अभाव है-ऐसे उपयोग को पलटाकर आत्मा में झुका - ऐसा करने से पर के साथ एकत्वबुद्धिरूप मोह छूट जायेगा... और तुझे पर से भिन्न तेरा चैतन्य तत्त्व आनन्द के विलाससहित अनुभव में आयेगा। ३८ गाथा तक पर से भिन्न शुद्ध जीव का स्वरूप बहुत-बहुत प्रकार से स्पष्ट करके समझाने पर भी जो नहीं समझता और देहादि को आत्मा मानता है, उसे आचार्यदेव कड़क सम्बोधन करके Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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