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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
प्रज्ञाछैनी द्वारा भेदज्ञान करके आत्मा और बन्ध को अत्यन्त पृथक् कर डालता है।
अहा! आत्मा को बन्धन से मुक्त करना, वही मेरा कर्तव्य है। शुद्ध आत्मा को प्राप्त करना, वही मेरा एक कर्तव्य है – ऐसी जिसे तीव्र धगश जागृत हुई हो और सन्तों से भेदज्ञान का ऐसा उपदेश मिले, वह जीव भेदज्ञान का पुरुषार्थ किये बिना कैसे रहे? और ऐसा मोक्षार्थी जीव, बन्ध के एक कण को भी अपने स्वरूप में कैसे रखे? रखेगा ही नहीं; और भेदज्ञान के कार्य में वह प्रमाद भी कैसे करे? करेगा ही नहीं। जिस प्रकार बिजली की चमक में सुई पिरोनी हो, वहाँ प्रमाद कैसे चलेगा? उसी प्रकार अनन्त काल के संसार भ्रमण में बिजली की चमक जैसा यह मनुष्य अवतार, उसमें चैतन्यमय भेदज्ञानरूपी डोरा पिराने के लिये आत्मा की बहुत जागृति चाहिए। भाई! अनन्त काल में इस चैतन्य भगवान को पहचानने का और मोक्ष को साधने का अवसर आया है। लाखों का क्षण-क्षण जा रहा है, आत्मभान बिना उद्धार का कोई अवसर नहीं है; इसलिए सर्व उद्यम से तेरे आत्मा को भेदज्ञान में जोड़... शूरवीरता से प्रज्ञाछैनी द्वारा तेरे आत्मा के बन्धभाव को छेद डाल। प्रज्ञाछैनी उस बन्ध को छेदने का अमोघ शस्त्र है, प्रज्ञाछैनी को सावधान होकर पटकने पर, अर्थात् जगत की अनुकूलता में अटके बिना और जगत की प्रतिकूलता से डरे बिना, ज्ञान को अन्तर में स्वसन्मुख ढालने से बन्धन बाहर रह जाता है, अर्थात् आत्मा, बन्धन से छूट जाता है। इस प्रकार बन्धन को छेदकर मोक्ष प्राप्त करने का साधन भगवती प्रज्ञा ही है।
(श्री समयसार कलश, १८१ के प्रवचन में से)
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