________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-3]
[5
तो ज्ञान में होता है, कहीं शरीर में या राग में ज्ञानी का चिह्न नहीं होता। शरीर की अमुक चेष्टा द्वारा या राग द्वारा ज्ञानी नहीं पहचाना जाता; ज्ञानी तो उनसे भिन्न है, इसलिए आचार्यदेव कहते हैं कि हे शिष्य! जो जीव, ज्ञान को और राग को एकमेक नहीं करता, किन्तु पृथक् ही जानता है, पृथक् जानता हुआ रागादि का कर्ता नहीं होता परन्तु ज्ञाता ही रहता है और ज्ञानपरिणाम का ही कर्ता होकर परिणमित होता है, उसे तू ज्ञानी जान।
व्याप्य-व्यापकपने के सिद्धान्त से यहाँ ज्ञानी की पहचान करायी है। जिसे ज्ञानपरिणाम के साथ व्याप्य-व्यापकपना है, वह ज्ञानी है; जिसे विकार के साथ व्याप्य-व्यापकपना है, वह अज्ञानी है। व्याप्य-व्यापकपना एकस्वरूप में ही होता है, भिन्न स्वरूप में नहीं होता; इसलिए जिसे जिसके साथ एकता होती है, उसे उसके साथ व्याप्य-व्यापकपना होता है और उसके ही साथ कर्ता -कर्मपना होता है। ज्ञानी, ज्ञान के साथ ही एकता करके उसी में व्यापक होता हुआ उसका कर्ता होता है, अर्थात् ज्ञानरूप कार्य से ज्ञानी पहचाना जाता है; ऐसा ज्ञानी, विकार के साथ एकता नहीं करता, उसमें वह व्याप्त नहीं होता और उसका वह कर्ता नहीं होता; इस प्रकार ज्ञान को विकार के साथ एकता नहीं है - ज्ञानी का ऐसा लक्षण जो जीव पहचानता है, उसे भेदज्ञान होता है, उसे विकार का कर्तृत्व उड़ जाता है और ज्ञान में ही एकतारूप से परिणमता हुआ वह ज्ञानी होता है। भेदज्ञान के बिना ज्ञानी की सच्ची पहचान नहीं होती है।
जिस प्रकार घड़े को और मिट्टी को एकता है परन्तु घड़े को
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.