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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [187 उसमें कहते हैं कि अज्ञानी जीव, हित-अहित का विचार नहीं करता और सत्य बात सुनते ही चौंक उठता है । सत्य बात कान में पड़ते ही भड़ककर चिल्लाने लगता है, अपनी मनोनुकूल बात सुनते ही नरम हो जाता है और अपने को अरुचिकर बात हो तो चिड़ जाता है तथा वह जीव, मोक्षमार्गी साधुओं की निन्दा करता है और हिंसक अधर्मियों की प्रशंसा करता है। साता के उदय में अपने को महान मानता है और असाता के उदय में तुच्छ गिनता है। उसे मोक्ष तो रुचता नहीं है और कहीं दुर्गुण दिखाई दे तो उन्हें झट अङ्गीकार कर लेता है। उसे शरीर में अहंबुद्धि होने के कारण वह मोक्ष से तो ऐसा डरता है कि जैसे शेर से बकरी डरती है। इस प्रकार उसकी मूर्खता, अज्ञान से असत्य के मार्ग में चल रही है और ममता की साङ्कल से जकड़कर बुद्धि पानी भर रही है। यहाँ कहते हैं कि भाई ! सुन तो सही ! यह क्या बात है? धर्म की सत्य बात कान में पड़ना भी दुर्लभ है। यदि धैर्यवान होकर अन्तर में समझे तो इस बात की महिमा का पता चल सकता है। शुद्धपर्याय का लक्ष्य करके उसका आदर करने में भी विकल्प उत्पन्न होता है और राग होता है। त्रिकाली चैतन्यतत्त्व के आदर में वह पर्याय प्रगट हो जाती है। पर्याय के आश्रय में अटकने से निर्मलपर्याय नहीं होती, परन्तु शुद्धद्रव्य का आश्रय करने से वह पर्याय स्वयं निर्मल हो जाती है। निर्मलपर्याय वस्तु के आधार से होती है; इसलिए निर्मलपर्याय प्रगट करनेवाले की दृष्टि वस्तु पर होती है। पर्याय पर उसकी दृष्टि नहीं होती है। उस वस्तुदृष्टि में नव तत्त्व अभूतार्थ हैं और एक अभेद आत्मा ही प्रकाशमान है। ___Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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