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________________ www.vitragvani.com 164] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 कभी नहीं हो सकता। स्वभाव के घर में जाने के लिए आँगन भी उसके योग्य ही होता है; विरुद्ध नहीं होता है। यहाँ आचार्यदेव ने परमार्थ आत्मा के अनुभव के निमित्तरूप नव तत्त्व के विकल्परूप व्यवहार का वर्णन किया है। यह निमित्त तो अपनी पर्याय में ही है; अनुभव के पहले बीच में ऐसी पर्याय हुए बिना नहीं रहती और सम्यग्दर्शन के निमित्तरूप जो पञ्चेन्द्रियपना, देव-शास्त्र-गुरु इत्यादि का वर्णन आता है, वह तो बाह्य संयोगरूप निमित्त है; वे तो स्वयं होते हैं और यह नव तत्त्व की श्रद्धारूप व्यवहार तो अपने अन्तर में उस प्रकार के प्रयत्न से होता है। इसलिए इस अध्यात्म ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन के निमित्तरूप उसकी ही बात की गयी है। अहो! इस समयसार में अत्यन्त गहनता भरी हुई है। अब, नव तत्त्वों को जानकर, परमार्थ सम्यग्दर्शन प्रगट करने के लिए क्या करना चाहिए? इस विषय में आचार्यदेव विशेष स्पष्टीकरण करते हैं। पहले सामान्यरूप से बात की थी, अब उस बात को विशेषरूप से समझाते हैं। ‘बाह्य अर्थात् स्थूल दृष्टि से देखा जाए तो - जीव-पुद्गल की अनादि बन्धपर्याय के समीप जाकर एकरूप से अनुभव करने पर यह नव तत्त्व भूतार्थ है, सत्यार्थ हैं और एक जीवद्रव्य के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ है अर्थात् वे जीव के एकाकार स्वरूप में नहीं हैं; इसलिए इन नव तत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है।' अज्ञानी को, नव तत्त्व में जीव और अजीव एक होकर परिणमित होते हैं - ऐसा स्थूलदृष्टि से लगता है परन्तु ज्ञानी तो, नव तत्त्वों में जीव और Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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