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________________ www.vitragvani.com 162] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 से शुद्ध आत्मा को शोधकर, अभेद आत्मा का अनुभव करता ही है। नव तत्त्व के विचार तक आकर वापस फिर जाए - ऐसी बात यहाँ है ही नहीं। यहाँ तो अफरगामी मुमुक्षु की ही बात है। __निश्चय के अनुभव में तो नव तत्त्व इत्यादि व्यवहार अभूतार्थ हैं परन्तु निश्चय का अनुभव प्रगट करने की पात्रतावाले जीव को ऐसा ही व्यवहार होता है; इससे विरुद्ध दूसरा व्यवहार नहीं होता। व्यवहार को सर्वथा अभूतार्थ गिनकर उसमें गड़बड़ करे और तत्त्व का निर्णय न करे, वह तो अभी परमार्थ के आँगन में भी नहीं आया है। कुतत्त्वों की मान्यता तो परमार्थ का आँगन नहीं भी है, सच्चे तत्त्व की मान्यता ही परमार्थ का आँगन है। जैसे, किसी को सज्जन के घर में जाना हो और दुर्जन के आँगन में जाकर खड़ा रहे तो वह सज्जन के घर में प्रवेश नहीं कर सकता, परन्तु यदि सज्जन के घर के आँगन में ही खड़ा हो तो वह सजन के घर में प्रवेश कर सकता है। इसी प्रकार सज्जन अर्थात् सर्वज्ञ प्रभु द्वारा कथित चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा का अनुभव करने के लिए सर्वज्ञदेव द्वारा कथित नव तत्त्व इत्यादि का निर्णय करना, वह प्रथम अनुभव का आँगन है; जो उसका निर्णय नहीं करते और दूसरे कुतत्त्वों को मानते हैं, वे तो अभी सर्वज्ञ भगवान के द्वारा कथित आत्मस्वभाव के अनुभवरूप आँगन में भी नहीं आये हैं; अत: उन्हें अनुभवरूपी घर में तो प्रवेश होगा ही कैसे? ___ पहले, रागमिश्रित विचार से नव तत्त्व इत्यादि का निर्णय करने के पश्चात् ज्ञायकस्वभाव की तरफ ढलकर अनुभव करने पर वह सब भेद अभूतार्थ हो जाते हैं। अभूतार्थ किसलिये कहे हैं? क्योंकि परमार्थ आत्मा के अनुभव के विषय में वे नहीं आते हैं। ___Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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