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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
जिस जीव को मिथ्यात्व का पाप हुआ, वहाँ उस जीव की पर्याय में ही वैसी योग्यता है । यद्यपि मिथ्यात्वकर्म के कारण, मिथ्यात्व नहीं हुआ है, तथापि मिथ्यात्वादि भाव में अजीव कर्म निमित्त न हो - ऐसा भी नहीं होता है। अकेले (जीव) तत्त्व में पर की अपेक्षा बिना विकार नहीं होता है। यदि अकेले (जीव) तत्त्व में परलक्ष्य के बिना विकार होता हो, तब तो वह विकार, स्वभाव ही हो जाएगा।
यहाँ जीव को अपनी योग्यता में रागादि बढ़ते-घटते हैं अर्थात् पुण्य-पाप इत्यादि की हीनाधिकता होती है तो उसके निमित्तरूप सामने अजीव में भी हीनाधिकता माननी पड़ेगी। वह हीनाधिकता अनेक द्रव्य के बिना नहीं हो सकती है; इसलिए पुद्गल में संयोग -वियोग, स्कन्ध इत्यादि मानना पड़ेगा। जैसे, यहाँ जीव के उपादान की योग्यता में अनेक प्रकार पड़ते हैं; उसी प्रकार सामने निमित्तरूप अजीवकर्म में भी अनेक प्रकार पड़ते हैं। ऐसा होने पर भी कोई द्रव्य किसी द्रव्य का शत्रु तो है ही नहीं। अजीवकर्म, शत्रु होकर जीव को जबरदस्ती विकार कराता है - ऐसा नहीं है। अजीव को विकार करनेवाला कहा है, वह निमित्तरूप कहा है।
यह गाथा बहुत सरस है, नव तत्त्व समझकर भूतार्थस्वभाव के आश्रय से सम्यग्दर्शन प्रगट करने की अद्भुत बात इस गाथा में आचार्यदेव ने की है। उसे समझकर अन्तरङ्ग में मनन करने योग्य है।
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