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________________ www.vitragvani.com 136] [सम्यग्दर्शन : भाग-3 सम्यग्दर्शन होता है - यह सम्यग्दर्शन का नियम कहा है। नव तत्त्व के विकल्प, वे कोई नियम से सम्यग्दर्शन नहीं हैं। वे विकल्प हों, तब सम्यग्दर्शन हो भी अथवा न भी हो; इसलिए वहाँ सम्यग्दर्शन होने का नियम नहीं कहा। जबकि जहाँ भूतार्थस्वभाव का आश्रय होता है, वहाँ तो सम्यग्दर्शन नियम से होता ही है; इसलिए वहाँ सम्यग्दर्शन का नियम कहा है। अब, जो नव तत्त्व कहे हैं, उनमें पर्यायरूप सात तत्त्वोंरूप एक जीव और दूसरा अजीव - इन दोनों का स्वतन्त्र परिणमन बतलाते हैं। जीव और अजीव तो त्रिकाली तत्त्व हैं, उनकी अवस्था में जीव की योग्यता और अजीव का निमित्तपना - ऐसे निमित्त -नैमित्तिक सम्बन्ध से पुण्य-पाप इत्यादि सात तत्त्व होते हैं । वहाँ विकारी होने योग्य और विकार करनेवाला – यह दोनों पुण्य हैं तथा यह दोनों पाप हैं; उनमें एक जीव है और दूसरा अजीव है। तात्पर्य यह है कि विकारी होने योग्य जीव है और विकार करनेवाला अजीव है। जीव के विकार में अजीव निमित्त है; इसलिए यहाँ अजीव को विकार करनेवाला कहा है - ऐसा समझना चाहिए। जीव स्वयं ही विकारी होने योग्य है; कोई दूसरा उसे बलजोरी से विकार कराता है - ऐसा नहीं है। जीव सर्वथा कूटस्थ अथवा सर्वथा शुद्ध नहीं है परन्तु पुण्य-पापरूप विकारी होने की योग्यता उसकी अवस्था में है और उस योग्यता में अजीव निमित्त है। अजीव को विकार करनेवाला कहा, इसका अर्थ यह है कि वह निमित्त है - ऐसा समझना चाहिए। जीव की योग्यता है और अजीव निमित्त है । जब जीव में अपनी योग्यता से ही विकार होता है, तब निमित्तरूप में अजीव को विकार करानेवाला कहते हैं परन्तु Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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