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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
भी हुई है और अभी पूर्ण वीतरागता प्रगट करने का काम शेष है, वह श्रद्धा के बल से अल्प काल में पूरा कर लेगा ।
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चौथे गुणस्थान में सम्यक् आत्मभान होने पर दृष्टि में पूरा स्वरूप आ गया है; इसीलिए श्रद्धा से तो कृतकृत्यता हो गयी है परन्तु अभी आत्मा को केवलज्ञानरूप विकास नहीं हुआ है, वीतरागपना नहीं हुआ है। मैं त्रिकाल -चैतन्यस्वरूप जीवद्रव्य हूँ, अजीवतत्त्व मुझसे भिन्न हैं और दूसरे सातों तत्त्व हैं, वे क्षणिक हैं; इस प्रकार धर्मी को भी नव तत्त्व के भेद का विकल्प आता है परन्तु धर्मी को उस विकल्प में एकताबुद्धि नहीं है; इसलिए विकल्प की मुख्यता नहीं है किन्तु अभेद चैतन्य की ही मुख्यता है और आत्मा में एकाग्र होकर वीतराग होने पर वैसे विकल्प होते ही नहीं हैं।
देखो, यह आत्मकल्याण के लिए अपूर्व बात है । यह कोई दूसरों के लिए नहीं, किन्तु मेरे लिए ही है - ऐसा सुलटा होकर स्वयं अपने ऊपर घटित न करे तो उस जीव को समझने की दरकार नहीं है और उसे आत्मा की यह बात अन्तर में समझ में नहीं आयेगी । इसलिए आत्मार्थी जीवों को अन्तर में अपने आत्मा के साथ इस बात का मिलान करना चाहिए ।
अहो ! इस गाथा में भगवान कहते हैं कि भूयत्थेण अभिगदा... नव तत्त्वों को भूतार्थ से जानना, वह सम्यग्दर्शन है। वास्तव में भूतार्थनय के विषय में नव तत्त्व हैं ही नहीं; नव तत्त्व तो अभूतार्थनय का विषय है। भूतार्थनय का विषय तो अकेला ज्ञायक आत्मा ही है। जो एक शुद्ध ज्ञायक की ओर झुका, उसे नव तत्त्व का ज्ञान यथार्थ हो गया। एक चैतन्यतत्त्व को भूतार्थ से जानने से
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