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सम्यग्दर्शन : भाग-3]
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ऐसा मानकर, इस विपरीतमान्यता से तेरा आत्मा प्रतिक्षण भयङ्कर भावमरण कर रहा है। यदि तुझे उस भावमरण से बचकर अपनी आत्मा का जीवन प्राप्त करना हो तो चैतन्यस्वरूप आत्मा की प्रतीति कर। इस चैतन्य की प्रतीति के बिना चैतन्य जीवन नहीं जिया जा सकता और भावमरण से नहीं बचा जा सकता।
व्यवहारसम्यक्त्व में तो भेद से नव तत्त्व की श्रद्धा है और अभेद परमार्थ सम्यक्त्व में तो एकरूप अभेद आत्मा की ही प्रसिद्धि है। आत्मख्याति, वह निश्चयसम्यक्त्व का लक्षण है।
हे भाई! तुझे भगवान के समीप आना है या नहीं ? तुझे चैतन्य भगवान का साक्षात् दर्शन करना है या नहीं? तो पहले तुझे व्यवहारश्रद्धा एकदम सही करनी पड़ेगी। चैतन्य भगवान के दर्शन करने में पहले द्वारपालरूप व्यवहार श्रद्धा आती है परन्तु यदि उस द्वारपाल के पास ही रुक जाएगा तो तुझे चैतन्य भगवान के दर्शन नहीं होंगे। प्रथम, नव तत्त्व को भलीभाँति जानकर, एक अभेद आत्मा के स्वभावसन्मुख अन्तर झुकाव करके, प्रतीति करने से चैतन्य प्रभु के दर्शन होते हैं; वह सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन द्वारा उस चैतन्य भगवान के दर्शन करते हुए, भव का अन्त आ जाएगा। इस चैतन्य भगवान के दर्शन किये बिना, भव का अन्त नहीं आ सकता है।
जो जीव, नव तत्त्व के ज्ञान में भी गड़बड़ी करता है, वह तो अभी चैतन्य भगवान के आँगन में भी नहीं आया है; उसे चैतन्य भगवान के दर्शन नहीं हो सकते हैं। पहले रागमिश्रित विचार से जीव-अजीव को भिन्न-भिन्न मानना, वह चैतन्य भगवान का आँगन है और अभेदस्वरूप की रागरहित अनुभवसहित प्रतीति
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