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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
सम्यग्दर्शन है। राजा श्रेणिक को ऐसा सम्यक्त्व था, उसके फल में संसार का नाश करके वे आगामी चौबीसी में पहले तीर्थङ्कर होकर, उसी भव से मुक्ति प्राप्त करेंगे। यद्यपि उन्हें व्रतादिक नहीं थे, तथापि यहाँ कहा गया वैसा आत्मा का भान था अर्थात् सम्यग्दर्शन था; इस कारण वे एकावतारी हुए हैं।
तीर्थ अर्थात् तिरने का उपाय। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही तिरने का उपाय है और उसकी प्रवृत्ति में नव तत्त्व की श्रद्धा इत्यादि निमित्तरूप है। वह व्यवहारश्रद्धा कोई मूलस्वरूप नहीं है, वह स्वयं तीर्थ अथवा मोक्षमार्ग नहीं है परन्तु वह व्यवहार श्रद्धा, परमार्थ में जाने पर बीच में आये बिना नहीं रहती।
इस जगत् का कर्ता कोई ईश्वर है अथवा सब मिलकर एक ब्रह्मस्वरूप ही है - इत्यादि कथनरूप कुतत्त्वों की श्रद्धा छूटकर श्री सर्वज्ञदेव द्वारा कथित नव तत्त्वों को लक्ष्य में लेना, वह व्यवहारश्रद्धा है; उसमें अभी रागपरिणाम है और उस राग से रहित होकर स्वसन्मुखरूप से अभेद आत्मा की प्रतीति करना, वह परमार्थ सम्यग्दर्शन है और वही धर्म है।
प्रश्न - मरण के काल में ऐसी प्रतीति करे तो?
उत्तर - भाई! अभी भी आत्मा के भान बिना तू प्रतिक्षण भावमरण ही कर रहा है; इसलिए उस भावमरण से बचने के लिए आत्मा के स्वभाव की पहचान कर। श्रीमद् राजचन्द्रजी कहते हैं कि -
तू क्यों भयङ्कर भावमरण प्रवाह में चकचूर है! भाई ! मैं पर का कर्ता हूँ और विकल्प से मुझे लाभ होता है -
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