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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-3] [85 तुझे अपने आत्मा को अपूर्ण अथवा विकारी मानना नहीं चलेगा। यदि तू आत्मा को अपूर्णतावाला अथवा विकारवाला ही मान लेगा तो तेरे आत्मा में से अपूर्णता और विकार का अभाव किस प्रकार होगा? आत्मा को अपूर्ण मानने से अपूर्णता नहीं मिटती, अपितु पूर्ण आत्मा की श्रद्धा करने से अपूर्णता क्रम-क्रम से नाश हो जाती है। प्रत्येक आत्मा प्रभु है, पूर्ण सामर्थ्यवान् है; अवस्था में अपूर्णता भले ही हो, परन्तु सदा अपूर्णता ही रहा करे और पूर्णता प्रगट ही नहीं हो सके - ऐसा उसका स्वभाव नहीं है। पर्याय से भी परिपूर्ण होने का प्रत्येक आत्मा का स्वरूप है; प्रत्येक आत्मा निर्लेप, निर्दोष परिपूर्ण परमात्मा है - ऐसा भगवान की वाणी का पुकार है। अपने ऐसे पूर्ण आत्मा को पहचानकर, उसके अनुभवसहित सम्यग्दर्शन होता है और तभी धर्म की शुरूआत होती है। इसके अतिरिक्त धर्म का प्रारम्भ नहीं होता। श्री अरहन्त भगवान कहते हैं कि अहो! पूर्ण चैतन्यघनस्वभाव पर दृष्टि देकर अन्तर्मुख एकाग्र होकर मैंने केवलज्ञान प्रगट किया है। प्रत्येक जीव के अन्तर में चैतन्य-समुद्र लबालब उछल रहा है, उसमें अन्तर्दृष्टि करना, वह सम्यग्दर्शन है। ऐसा परिपूर्ण चैतन्य आत्मा है, उसका भान किये बिना बाहर की अर्थात् देव-शास्त्र -गुरु की श्रद्धा से सच्चा सम्यक्त्व नहीं हो जाता है। भाई! यह बात तो अपना हित करने के लिए है, पर का तो कोई कुछ कर ही नहीं सकता। अज्ञानी, मात्र अभिमान करके संसार में परिभ्रमण करता है। आत्मा का कल्याण कैसे हो? - यह Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007770
Book TitleSamyag Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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