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[सम्यग्दर्शन : भाग-3
लड़कियाँ भी अपने पूर्ण आत्मा को ऐसा मानती हैं कि अहो! हम तो चैतन्य हैं, अपने आत्मा को सिद्ध भगवान से किञ्चित् भी कम मानना हमको नहीं पोषाता; हम तो अपने आत्मा को परिपूर्ण ही स्वीकार करते हैं । अन्तर स्वभाव के अवलोकन तरफ झुकने पर आठ वर्ष की बालिका को भी ऐसा आत्मभान होता है; इसलिए हमें यह नहीं समझ में आ सकता - ऐसा नहीं मानना चाहिए। समस्त आत्माएँ चैतन्यस्वरूप हैं और पूरा-पूरा समझ सके - ऐसी सामर्थ्य प्रत्येक आत्मा में विद्यमान है।
आत्मा का जैसा स्वभाव है, वैसा अनुभव किये बिना आत्मा ज्ञाता-दृष्टा है - ऐसा मान लेने मात्र से सम्यग्दर्शन नहीं होता है। श्री सर्वज्ञ भगवान की वाणी में जैसा आत्मा कहा गया है, वैसा निर्णय में लेकर अनुभव करना चाहिए। श्री सर्वज्ञभगवान, एक समय में तीन काल-तीन लोक को प्रत्यक्ष ज्ञान से जानते हैं। ऐसे सर्वज्ञभगवान ने आत्मा कैसा कहा है ? जैसे स्वयं पूर्ण हैं, वैसा ही आत्मा कहा है, उससे कम नहीं कहा है। सर्वज्ञभगवान के ज्ञान में रागरहितरूप से समस्त वस्तुएँ प्रत्यक्ष भिन्न-भिन्न एक साथ ज्ञात होती हैं। ऐसे सर्वज्ञभगवान, आत्मा का स्वरूप अपूर्ण अथवा विकारी नहीं बतलाते, अपितु प्रत्येक आत्मा परिपूर्ण है - ऐसा सर्वज्ञभगवान बतलाते हैं। इस प्रकार आत्मा का परिपूर्ण स्वरूप बतलानेवाले सर्वज्ञदेव कैसे होते हैं ? उनके साधक-सन्तों की दशा कैसी होती है और उनकी वाणी कैसी होती है ? - ऐसे सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की पहचान तो सर्व प्रथम करना चाहिए। सर्वज्ञभगवान कहते हैं कि हे भाई! यदि तुझे धर्म करना हो तो
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