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सम्यग्दर्शन : भाग-2 ]
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लक्ष्य से सुनना चाहिए । इस प्रकार आचार्यदेव, विकार के अंश की दृष्टि छुड़ाकर शुद्धात्मा की रुचि कराते हैं । शास्त्र के शब्द पर या उनके लक्ष्य से होनेवाले विकल्प पर रुचि का जोर न देकर, शास्त्र के वाच्यभूत शुद्ध आत्मस्वभाव की रुचि करके उसका अनुभव करने का आचार्यदेव कहते हैं।
मैं समयसार की टीका करता हूँ, अर्थात् वास्तव में तो टीका के वाच्यभूत शुद्धात्मा का घोलन करता हूँ । उस शुद्धात्मा के घोलन से मेरी परिणति निर्मल-निर्मल होती जाती है और जो श्रोताजन ऐसे शुद्धात्मा को स्वानुभव से समझेंगे, उन्हें भी मोह का क्षय होकर परिणति निर्मल होगी।
देखो, यह आत्मार्थी जीव की पात्रता !
आत्मार्थी जीव को अपना आत्मस्वरूप समझने के लिए इतनी गरज है कि दूसरे लोग मान-अपमान करें, उसके समक्ष देखता भी नहीं है। मुझे तो अपनी आत्मा को रिझाना है, मुझे जगत् को नहीं रिझाना है; इस प्रकार जगत् की अपेक्षा उसे आत्मा प्रिय लगा है, आत्मा से जगत् प्रिय नहीं है - ऐसी आत्मा की लगन के कारण वह जगत् के मान-अपमान को नहीं गिनता है । मुझे स्वयं समझकर अपनी आत्मा का हित साधना है - ऐसा ही लक्ष्य है परन्तु मैं समझकर दूसरों से अधिक हो जाऊँ या मैं समझकर दूसरों को समझा दूँ - ऐसी वृत्ति उसे उत्पन्न नहीं होती । देखो, यह आत्मार्थी जीव की पात्रता ! (पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी)
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