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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
समयसार के श्रोता का कर्तव्य
श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव कहते हैं कि मैं समयसार की टीका करता हूँ; समयसार, अर्थात् शुद्ध आत्मा, उसका वर्णन करने का मेरा हेतु है; इसलिए इस टीका का ध्येय तो शुद्ध आत्मा ही है। भले ही बीच में विकार का वर्णन आयेगा अवश्य परन्तु मेरा प्रयोजन तो उस विकार से भिन्न शुद्ध आत्मा दिखलाने का ही है। विकार को हेयरूप बतलाते हुए उसका वर्णन आयेगा और शुद्ध आत्मा को उपादेयरूप बतलाते हुए उसका वर्णन आयेगा। टीका करते हुए मेरा लक्ष्य विकार पर नहीं परन्तु शुद्धात्मा पर ही है। टीका द्वारा मैं शुद्धात्मा का स्वरूप समझाना चाहता हूँ; इसलिए समयसार का श्रवण करनेवाले श्रोताओं को भी वही लक्ष्य होना चाहिए। शुभभाव को ही प्रयोजन मानकर अटक जाये तो उसने समयसार का श्रवण नहीं किया कहा जायेगा। विकाररहित ज्ञायक शुद्ध आत्मा है, वह बतलाने का हेतु है; इसलिए श्रोताओं को भी वही प्रयोजन रखकर श्रवण करना चाहिए। ___ आचार्य कहते हैं कि तू सिद्ध है, तेरे आत्मा में हम सिद्धत्व स्थापित करते हैं; तेरे सिद्धस्वभाव के लक्ष्य से श्रवण करना; बीच में विकल्प आवे, उस विकल्प या निमित्त पर लक्ष्य का जोर मत देना, लक्ष्य का जोर तो शुद्ध आत्मा पर ही रखना। मेरा आत्मा विकाररहित शुद्ध ज्ञाता है, उस पर ही मेरा लक्ष्य है और श्रोताओं को इस टीका द्वारा मैं उसका लक्ष्य कराना चाहता हूँ; इसलिए श्रोताओं को भी अपना आत्मा, विकाररहित है – ऐसे स्वभाव के
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