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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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नहीं कहते हैं, अपितु जो अन्तरङ्ग में चैतन्य की भावना करता है, उसका जीवन धन्य है - ऐसा कहते हैं। ___ मैं इस जड़ शरीर से भिन्न हूँ। अहो! मेरे आत्मा का क्या होगा? यह जड़ शरीर तो यहीं पड़ा रहेगा और मैं तो अकेला चला जाऊँगा। जब यह शरीर ही मेरे साथ स्थायी रहनेवाला नहीं है, तब फिर अन्य स्त्री, परिवार, लक्ष्मी इत्यादि की तो बात ही क्या है?
अरे! विकार भी मेरा स्वरूप नहीं है, मेरा आत्मा नित्य शुद्ध चिदानन्द है। सिद्ध भगवान जितना परिपूर्ण सामर्थ्य मुझमें भरा है, उसे मैं पहचानें इस प्रकार जिसे चौबीस घण्टे अन्तरङ्ग में रटन चलती है - ऐसे धर्म की चिन्तावाले धर्मात्माओं को धन्य है! ऐसी पवित्रतावाले जीवों का पुण्यवन्त देव भी आदर करते हैं।
आत्मस्वभाव के लक्ष्यवाला जीवन ही आदरणीय है, इसके अतिरिक्त दूसरा जीवन आदरणीय नहीं गिना गया है; इसलिए भव्यात्माओं को बारम्बार शुद्धात्मा की चिन्ता में और उसी के रटन में रहना चाहिए - ऐसा श्री आचार्यदेव का उपदेश है।
शरीर, पैसा, परिवार अथवा देश इत्यादि का जो होना हो, वह होगा; उन्हें संयोगरूप रहना होगा तो रहेंगे, जाना होगा जाएँगे; मेरे आत्मा से तो वह सब भिन्न हैं। मैं नित्य रहनेवाला चैतन्यबिम्ब हूँ, उसे पहचानकर उसमें स्थिर रहूँ - यही मेरा कर्तव्य है। जिसे आत्मा की ऐसी रुचि और छटपटाहट प्रगट हुई है, उसे वह नित्य शान्ति और आनन्द प्रदाता है। उसका जीवन धन्य है। भाई! करने योग्य हो तो यह एक ही कार्य है।
[पद्मनन्दिपञ्चविंशति एकत्वसप्तती अधिकार, गाथा 65 के प्रवचन से ]
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