SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com 74] [सम्यग्दर्शन : भाग-2 श्रीमद् राजचन्द्रजी इस पद्मनन्दिपञ्चविशति शास्त्र को 'वन शास्त्र' कहते हैं। यह शास्त्र वन में रचित है और वन में रहकर ज्ञान-ध्यान करने के लिये यह एक उत्तम शास्त्र है; इसलिए इसे 'वन शास्त्र' कहा है। आत्मा का भान करके जो आत्मध्यान में स्थिर हुए हैं, उन्हें तो सर्वत्र वन ही है, उनका आत्मा ही उनका वन है। अहा! मेरा स्वभाव जगत् का साक्षी/ज्ञाता है, क्षणिक विकार अथवा देह मेरा स्वरूप नहीं है; इस प्रकार जिसके अन्तर में चैतन्य की चिन्ता जागृत हुई है, उसकी आचार्यदेव प्रशंसा करते हैं। अहो ! जो चैतन्यलक्ष्यी जीवन जीता है, वही प्रशंसनीय है। जो जीव, चैतन्य के लक्ष्य बिना जीवन जीते हैं, वे तो मृतक समान हैं। ____ यह शरीर तो संयोगी अनित्य है - ऐसे शरीर तो अनन्त आये और गये, किन्तु मेरा आत्मा अनादि-अनन्त एकरूप है, उसका कभी नाश नहीं होता। इस प्रकार जिसे दिन-रात आत्मा की चिन्ता जागृत हुई है, आत्मा क्या है? - उसका भान करने के लिये, उसका ध्यान करने के लिये, उसकी भावना करने के लिये, जिसे सदा अन्तर में रटन चालू है, उसका जीवन प्रशंसनीय है। जगत् की, जञ्जाल की चिन्ता के समक्ष जिसे आत्मा के विचार का भी अवकाश नहीं है, उसका जीवन तो व्यर्थ चला जाता है। जगत् की, जञ्जाल की चिन्ता का झंझट छूटकर जिसे आत्मा की चिन्ता जागृत हुई है, उसका जीवन धन्य है। __ अमेरिका में ऐसी मशीन होती है कि उसमें पैसा डालते ही अपने आप फोटो पडकर (खिंचकर) बाहर आ जाता है। लोगों को ऐसी मशीन का विश्वास आता है परन्तु आनन्दकन्द आत्मा में Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy