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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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में आत्मा की रमणता में निमग्न रहते थे। उन्होंने जङ्गल में इस पद्मनन्दिपञ्चविंशति शास्त्र की रचना की है। उसमें वे कहते हैं कि अहो! जो जीव, देह और विकार से भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मा को जानकर उसके ध्यान में स्थिर होता है, उसकी बात तो दूर रहो अर्थात् उसकी तो बात ही क्या है ! परन्तु जिसे मात्र शुद्धात्मा की चिन्ता का परिग्रह वर्तता है अर्थात् जो अन्य सभी चिन्ताएँ छोड़कर मात्र आत्मा के चिन्तन में सदा तत्पर रहता है, उसका जीवन भी धन्य है। लक्ष्मी इत्यादि के परिग्रह की पकड़ तो ममता और संसार का कारण है; इसलिए उस जीवन को धन्य नहीं कहते, किन्तु चैतन्यतत्त्व की चिन्ता की जिसने पकड़ की है - ऐसे जीवन को सन्त प्रशंसनीय कहते हैं । यहाँ चिन्ता कहने से राग नहीं समझना चाहिए, अपितु ज्ञान में चैतन्य की महिमा का घोलन समझना चाहिए।
संसार में परिभ्रमण करते हुए अनन्त बार मनुष्य देह पाकर भी आत्मा के भान बिना मरण किया परन्तु आत्मा क्या है? - उसकी बात का परिज्ञान नहीं किया; इसलिए यहाँ उसकी महिमा बतलाते हुए कहते हैं कि बाहर की चिन्ता मिटाकर जो आत्मस्वरूप में स्थिर हैं, उन्होंने तो करने योग्य कार्य कर लिया है, उनकी तो क्या बात! परन्तु जिन्हें जगत् की चिन्ता छोड़कर, आत्मा की चिन्ता की पकड़ भी हुई है कि अहो ! मैंने अपने आत्मा को अनन्त काल से पहचाना नहीं, अनन्त काल में कभी आत्मा का ध्यान नहीं किया; आत्मा को भूलकर बाह्य पदार्थों की चिन्ता में ही परिभ्रमण किया है। अब, सत्समागम से आत्मा को जानकर उसी का ध्यान करनेयोग्य है - ऐसी आत्मा की चिन्ता का परिग्रह करे, पकड़ करे, उसका जीवन भी प्रशंसनीय है।
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