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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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जितनी पुरुषार्थ की एकाग्रता करे, उतनी निर्मल पर्याय प्रगट होती है अर्थात् जैसी पुरुषार्थ की एकाग्रता करे, वैसा ही फोटो पर्याय में पड़ जाता है - ऐसी चैतन्यशक्ति का विश्वास जगत् को नहीं आता है। चैतन्य शक्ति को पहचानकर उसके साँचे में जितनी पुरुषार्थ की एकाग्रतारूप कीमत डालें, उतनी निर्मलदशा अन्दर की शक्ति में से प्रगट हुए बिना नहीं रहती। ___ 'एक अणुबम गिरता है तो सम्पूर्ण नगर का नाश कर देता है' - इस प्रकार जगत् के जीव अणुबम की शक्ति का विश्वास और महिमा करते हैं किन्तु आत्मा के श्रद्धारूपी अणुबम में ऐसी सामर्थ्य है कि वह अनन्त कर्मों को एक क्षण में भस्म कर देता है; उसका विश्वास और महिमा आना चाहिए। पहले अन्तर में आत्मा की जिज्ञासा और मन्थन जागृत होना चाहिए। अन्तर के चैतन्यतत्त्व को शोधन के लिये उसका अनुभव करना चाहिए, उसका साक्षात्कार करने के लिये और उसके ध्यान में स्थिर होने के लिये जिसे रात
और दिन; स्वप्न अथवा जागृतदशा में; हिलते-चलते सदा रटन चलती है, उसका जीवन धन्य है। ___ जिस प्रकार माता से पृथक् पड़े हुए बालक को ‘मेरी माँ... मेरी माँ...' इस प्रकार अपनी माता की ही रटन रहा करती है। कोई उससे पूछे कि तेरा नाम क्या है ? तो वह कहेगा ‘मेरी माँ।' कोई उससे खाने के लिये पूछे तो कहेगा ‘मेरी माँ', इस प्रकार वह माता की ही रटन करता है। इसी प्रकार जिन भव्य जीवों को अन्तर में आत्मा की दरकार जगती है, आत्मा की ही रटन और आत्मा की ही चिन्ता जो प्रगट करते हैं, जो आत्मा के अतिरिक्त अन्य की रुचि अन्तरङ्ग में नहीं होने देते, उनका जीवन धन्य है।
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