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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] [65 __अरे आत्मा! तू जाग... तू जागकर देख तो तेरे स्वभाव में बन्धन है ही नहीं - ऐसा भान होने पर द्रव्यबन्ध भी टूट ही जायेगा, रहेगा नहीं। जब ज्ञान प्रगट होता है, तब रागादिक नहीं रहते और उनका कार्य जो बन्ध, वह भी नहीं रहता, तत्पश्चात् ज्ञान को आवरण करनेवाला कोई नहीं रहता, वह ज्ञान सदा प्रकाशमान ही रहता है। (समयसार, बन्ध अधिकार के प्रवचनों से) जीवन का कर्तव्य अहो! धर्मात्मा जीव को जीवन में करनेयोग्य यदि कुछ हो तो आत्मा और ज्ञान की सम्पूर्ण एकता ही करना, यही करने योग्य है। पहले राग से भिन्नता और ज्ञान के साथ आत्मा की एकता की श्रद्धा करना और फिर ज्ञान को स्वरूप में स्थिर करके वीतरागभाव प्रगट करके सम्पूर्ण एकता करना; इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ करने योग्य नहीं है। इसमें ही मोक्षमार्ग अथवा धर्म, जो कहो वह आ जाता है। किसी भी पर के कारण ज्ञान खिले, ऐसा जिसने माना है, उसने राग के साथ ही ज्ञान की एकता की है। ऐसा अज्ञानी जीव प्रत्येक संयोग के समय ज्ञान और आत्मा की एकता को तोड़ता है, वह अधर्म है। ज्ञान के साथ आत्मा की एकता और रागादि से भिन्नता की श्रद्धा से ज्ञानी जीव को कैसे भी प्रसंग के समय भी प्रति समय स्वभाव में ज्ञान की एकता बढ़ती जाती है और राग टूटता जाता है, वह धर्म है। (भेदविज्ञानसार में से) Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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