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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
आत्मज्ञ, वह शास्त्रज्ञ
जो अप्पाणं जाणदि, असुइसरीरादु तच्चदो भिण्णं। जाणगस्वसरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं ॥
अर्थात् जो मुनि, अपने आत्मा को, इस अपवित्र शरीर से भिन्न ज्ञायकस्वरूप जानता है, वह सब शास्त्रों को जानता है।
भावार्थ : जो मुनि, शास्त्र-अभ्यास अल्प भी करता है और अपने आत्मा का रूप ज्ञायक, अर्थात् देखने-जाननेवाला, इस अशुचि शरीर से भिन्न, शुद्ध उपयोगरूप होकर जानता है, वह सब ही शास्त्र जानता है। अपना स्वरूप न जाना और बहुत शास्त्र पढ़े, तो क्या साध्य है?
जो णवि जाणदि अप्पं, णाणसरूवं सरीरदो भिण्णं। सो णवि जाणदि सत्थं, आगमपाढं कुणंतो वि॥
अर्थात् जो मुनि, अपने आत्मा को ज्ञानस्वरूपी, शरीर से भिन्न नहीं जानता है, वह आगम का पाठ करे तो भी शास्त्र को नहीं जानता है।
भावार्थ : जो मुनि, शरीर से भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्मा को नहीं जानता है, वह बहुत शास्त्र पढ़ता है तो भी बिना पढ़ा ही है। शास्त्र पढ़ने का सार तो अपना स्वरूप जानकर, राग-द्वेष रहित होना था, सो पढ़कर भी ऐसा नहीं हुआ, तो क्या पढ़ा? अपना स्वरूप जानकर उसमें स्थिर होना, वह निश्चयस्वाध्यायतप है। वांचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश – ऐसे पाँच प्रकार का
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