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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
सन्तों के अनुभव का सार
__ हे भव्य जीवों! इस परमात्मतत्त्व का आश्रय करके शुद्ध रत्नत्रय प्रगट करो। इतना न कर सको तो सम्यग्दर्शन तो अवश्य | ही करो, वह दशा भी अभूतपूर्व और अलौकिक है।
शास्त्रकार आचार्य भगवन्तों ने और टीकाकार मुनिवरों ने परमागम के पृष्ठ-पृष्ठ पर जो अनुभव सिद्ध परम सत्य पुकारा है, उसका सार इस प्रकार है। __ हे जगत की जीवो! तुम्हारे सुख का एकमात्र उपाय परमात्मतत्त्व का आश्रय है। सम्यग्दर्शन से लेकर सिद्धि तक की सर्व भूमिकाएँ उसमें समाहित है। परमात्मतत्त्व का जघन्य आश्रय, सम्यग्दर्शन है; वह आश्रय मध्यम कोटि की उग्रता धारण करने पर जीव को देशचारित्र, सकलचारित्र इत्यादि दशाएँ प्रगट होती हैं, और पूर्ण आश्रय होने पर केवलज्ञान और सिद्धत्व पाकर जीव सर्वथा कृतार्थ होता है। इस प्रकार परमात्मतत्त्व का आश्रय ही सम्यग्दर्शन है, वही सम्यग्ज्ञान है, वही सम्यक्चारित्र है, वही सत्यार्थ प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रयाश्चित्त, सामायिक, भक्ति, आवश्यक, समिति, गुप्ति, संयम, तप, संवर, निर्जरा, धर्म-शुक्लध्यान इत्यादि सब है। ऐसा एक भी मोक्ष का कारणरूप भाव नहीं है, जो परमात्मतत्त्व के आश्रय से अन्य हो। परमात्मतत्त्व के आश्रय से अन्य ऐसे भावों को (व्यवहार प्रतिक्रमण, व्यवहार प्रत्याख्यान इत्यादि शुभ -विकल्परूप भावों को) मोक्षमार्ग कहा जाता है, वह तो केवल उपचार से कहा जाता है।
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