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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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परमात्मतत्त्व के मध्यम कोटि के अपरिपक्व आश्रय के समय उस अपरिपक्वता के कारण साथ-साथ जो अबुद्धिरूप अंश विद्यमान होता है, वह अबुद्धिरूप अंश ही व्यवहार प्रतिक्रमणादि अनेक-अनेक शुभ विकल्पात्मक भावोंरूप दिखायी देता है। वह अशुद्धि अंश, वास्तव में मोक्षमार्ग कैसे हो सकता है ? वह तो वास्तव में मोक्षमार्ग से विरुद्ध भाव ही है, बन्धभाव ही है - ऐसा तुम समझो।
और, द्रव्यलिंगी मुनि को जो प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान इत्यादि शुभभाव होते हैं, वे भाव तो प्रत्येक जीव अनन्त बार कर चुका है परन्तु वे भाव उसे केवल परिभ्रमण का ही कारण हुए हैं, क्योंकि परमात्मतत्त्व के आश्रय के बिना आत्मा का स्वभाव-परिणमन आंशिक भी नहीं होता होने से उसे मोक्षमार्ग की प्राप्ति अंशमात्र भी नहीं होती।
सर्व जिनेन्द्रों की दिव्यध्वनि का संक्षेप और हमारे स्वसंवेदन का सार यह है कि भयंकर संसार रोग की एकमात्र औषध, परमात्मतत्त्व का आश्रय ही है। जहाँ तक जीव की दृष्टि ध्रुव अचल परमात्मतत्त्व पर न पड़कर क्षणिक भावों पर रहती है, वहाँ तक अनन्त उपायों से भी उसके कृतक औपाधिक उछाले / शुभाशुभविकल्प शमन नहीं होते परन्तु जहाँ उस दृष्टि को परमात्मतत्त्वरूप ध्रुव अवलम्बन हाथ लगता है, वहाँ उसी क्षण वह जीव (दृष्टि अपेक्षा से) कृतकृत्यता अनुभव करता है। (दृष्टि अपेक्षा से) विधि-निषेध विलय को प्राप्त होते हैं, अपूर्व समरस भाव का वेदन होता है, निजस्वभावरूप परिणमन का प्रारम्भ होता है और कृतक औपाधिक उछाला क्रम-क्रम से विराम को प्राप्त हो जाता है। इस
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