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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] [51 आत्मा के असंख्य प्रदेश में उन्हें अनन्त चैतन्य दीपक प्रगट हो गये हैं ऐसे अनन्त-अनन्त जिनेश्वरों ने ऐसी शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करनेवाले श्रमण और श्रावकों को निर्वाणभक्ति कही है। स्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान स्थिरतारूप शुद्धरत्नत्रय की आराधना ही मुक्ति की भक्ति है; इसलिए उसके द्वारा ही मुक्ति होती है – ऐसा जिनदेव कहते हैं। ऐसे शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करनेवाले श्रमण तथा श्रावक वास्तव में भक्त हैं। ___ अहो! चिदात्मा के भक्त उन श्रमण और श्रावकों की जय हो... उन्हें भक्ति से वन्दन हो! उल्लास और विश्वास जो जीव वास्तविक जिज्ञासु हो और अन्तर में आत्म-प्रतीत द्वारा सम्यग्दर्शन प्रगट करने के लिये उद्यमी हुआ हो, उस जीव को कैसा उल्लास और विश्वास होना चाहिए - यह बात एक बार पूज्य गुरुदेव ने निम्नलिखित भावभीने उद्गारों से अलौकिकरूप से समझायी थी।। मेरी परमात्मदशा मेरे आत्मा में से ही प्रगट होनेवाली है; मेरे आत्मा में ही मेरी परमात्म शक्ति भरी है, उसमें से मैं परमात्मदशा प्रगट करके अल्प काल में मोक्ष प्राप्त करनेवाला हूँ - इस प्रकार स्वयं को अपनी परमात्मशक्ति का विश्वास और आत्मवीर्य का उल्लास आना चाहिए। जिसे ऐसा परमात्मशक्ति का विश्वास और आत्मवीर्य का उल्लास हो, उसे अन्तर में छुटकारे का मार्ग हुए बिना नहीं रहता। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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