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________________ www.vitragvani.com 50] [सम्यग्दर्शन : भाग-2 या राग का आश्रय नहीं। श्रावक को भी सम्यक् श्रद्धा-ज्ञानपूर्वक आंशिक वीतरागी चारित्र प्रगट हुआ है, उतनी रत्नत्रय की भक्ति है। मुनि को पंच महाव्रत इत्यादि जो शुभराग है, वह तो आस्रव है, वह कहीं मुनिपद नहीं है; मुनिपद तो संवर-निर्जरारूप दशा है और वह दशा, चैतन्यस्वभाव के आश्रय से ही प्रगट होती है, उसे ही यहाँ आचार्यदेव ने निर्वाण की भक्ति कही है और ऐसी भक्ति से ही मुक्ति होती है। ___ अहो! नियमसार में तो सन्तों ने अमृत का समुद्र उछाला है ! शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करनेवाले उन परम श्रावकों को तथा परम तपोधनों को जिनवरों द्वारा कथित निर्वाणभक्ति, अर्थात् अपुनर्भवरूपी स्त्री की सेवा वर्तती है। अपुनर्भव, अर्थात् मोक्ष; उसकी आराधना उन्हें वर्तती है। ऐसा तत्त्व समझे बिना बाहर में छोड़ो-छोड़ो' ऐसा करे, उससे कहीं श्रावकपना या मुनिपना नहीं आ जाता। आत्मा में अन्तर्मुख होकर जो शुद्धरत्नत्रय की आराधना करता है, उसे ही श्रावकपना और मुनिपना होता है तथा वही मोक्ष की वास्तविक क्रिया है। शरीर की क्रिया तो जड़ की है और राग की क्रिया, आस्रव है; आत्मस्वभाव के आश्रय से पर्याय पलटकर वीतरागी पर्याय प्रगट हो जाये, वह धर्म क्रिया है। श्रमण तथा श्रावक ऐसी क्रिया करते हैं; बीच में राग हो, उसे धर्म की क्रिया नहीं मानते तथा बाह्य में देहादि की क्रिया को वे अपनी नहीं मानते। __ अभी महाविदेहक्षेत्र में सीमन्धर भगवान इत्यादि बीस तीर्थंकर विचरते हैं तथा केवली भगवन्तों के झुण्ड के झुण्ड वहाँ बिराजमान हैं, वहाँ तीर्थंकरों का केवली भगवन्तों का कभी विरह नहीं है; Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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