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सम्यग्दर्शन : भाग-2 ]
गयी है। वे परम नैष्कर्मवृत्तिवाले हैं, अर्थात् स्वरूप के आनन्द में इतने अधिक स्थिर हैं कि शुभ या अशुभकर्म से उदासीन हो गये हैं। राग से हटकर, परिणति अन्तर में झुक गयी है - ऐसे परमवीतरागी सन्त भी शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करते हैं, उसे भगवान, मोक्ष की भक्ति कहते हैं ।
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श्री सीमन्धर भगवान अभी महाविदेह में समवसरण में बिराजमान हैं। वे तीर्थंकररूप से बिचरते हैं, उनकी देह पाँच सौ धनुष की है, उनके समवसरण में गणधर बिराजमान हैं; भगवान की दिव्यध्वनि झेलकर दो घड़ी में बारह अंग की रचना करे, ऐसी अपार उनकी सामर्थ्य है। तीर्थंकर भगवान, अर्थात् धर्म के राजा और गणधरदेव, अर्थात् धर्म के दीवान; ऐसे गणधरदेव भी जब नमस्कार मन्त्र बोलकर पंच परमेष्ठी को भाव से नमस्कार करते हैं, तब वीतरागी आनन्द में झूलते हुए समस्त मुनि उसमें आ जाते हैं।
अहो! गणधरदेव जिन्हें नमस्कार करें, उन सन्त की दशा कैसी ! उन मुनिराज की महिमा कितनी !! मुनि भी परमेष्ठी हैं। ऐसे सन्त-मुनि अत्यन्त भवभीरु हैं और रागरहित नैष्कर्म्यपरिणतिवाले हैं। बाहर के किसी कार्य का बोझा सिर पर नहीं रखते । अन्तर के आनन्द के अनुभव में ही उनकी परिणति लीन है - ऐसे सन्त, शुद्धरत्नत्रय की भक्ति - आराधना करते हैं । अन्तर में शुद्धरत्नत्रय की आराधना होती है और बाह्य में निस्परिग्रही वीतरागी मुद्रा होती है – ऐसी मुनि की दशा है ।
इस प्रकार श्रावक तथा श्रमण, दोनों शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करते हैं। शुद्धरत्नत्रय की भक्ति में स्वभाव का ही आश्रय है; पर का
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