SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com 48] [सम्यग्दर्शन : भाग-2 भक्ति होती है। मुनियों की दशा महा अलौकिक है; श्रावक की अपेक्षा उन्हें रत्नत्रय की बहुत उग्र आराधना होती है, प्रतिक्षण विकल्प से छूटकर चैतन्यबिम्ब में जम जाते हैं, अभी केवलज्ञान लिया... या... लेंगे... ऐसी उनकी दशा है। अहो! सन्त-मुनि, आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्दकुण्ड में झूलते होते हैं, एकदम वीतरागता बढ़ गयी है और राग बहुत ही छूट गया है, वहाँ बाह्य में वस्त्रादि भी स्वयं छूट गये हैं और शरीर की सहज दिगम्बर निर्विकार दशा हो गयी है - ऐसे भवभयभीरु परम निष्कर्मपरिणतिवाले परम तपोधन भी शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करते हैं। किसी को ऐसा लगता हो कि श्रावक या मुनि बाह्य क्रियाकाण्ड में रुकते होंगे - तो कहते हैं कि नहीं; श्रावक तथा मुनि तो शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करनेवाले हैं। इस भक्ति में राग नहीं परन्तु शुद्ध आत्मा में श्रद्धा-ज्ञान-रमणता करना ही भक्ति है। ऐसी वीतरागी भक्ति ही मुक्ति का कारण है। ___ मुनि हो या श्रावक हो परन्तु उन्होंने स्वभाव के आश्रय से जितनी रत्नत्रय की आराधना की, उतनी ही वीतरागी भक्ति है और वही मुक्ति का कारण है। मुनि क्या करते होंगे? चैतन्य परमात्मा में अन्दर उतरकर शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करते हैं। पाँच परमेष्ठी पद में शामिल और भवभय से डरनेवाले, ऐसे वीतरागी मुनियों को स्वर्ग का भव करना पड़े, इसकी उन्हें भावना नहीं है; मैं तो चिदानन्द चैतन्यबिम्ब ज्ञायकमूर्ति हूँ; राग मेरा कार्य नहीं है - ऐसे भानसहित उसमें बहुत लीनता हुई है - ऐसी भावलिंगी सन्तों की दशा है। उसमें हठ नहीं परन्तु स्वभाव के आश्रय से वैसी सहज दशा हो Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy