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सम्यग्दर्शन : भाग - 2 ]
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तो अनादिरूढ़ है। अज्ञानी और अभव्य भी अनादि काल से शुभराग तो करता ही आया है, उसे 'प्रथम व्यवहार' किस प्रकार कहना ? वह तो वस्तुतः व्यवहार ही नहीं है । स्वभाव के आश्रय से निश्चय प्रगट करके राग का निषेध करे, तब उस निश्चयसहित के राग को व्यवहार कहते हैं । अन्तरस्वभाव का भान करके उसके आश्रय से वीतरागी निश्चयमोक्षमार्ग प्रगट किया, तब राग को उपचार सेव्यवहार से मोक्षमार्ग कहा जाता है परन्तु 'उपचार' का अर्थ ही 'वास्तव में वह मोक्षमार्ग नहीं' परन्तु बिलाव को सिंह कहने जैसा वह कथन है - ऐसा समझना चाहिए।
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अज्ञानी, निश्चय के बिना अकेला व्यवहार मानते हैं, अर्थात् ‘पहले व्यवहार और फिर निश्चय' – ऐसा मानते हैं, वह मिथ्या है; व्यवहार करते-करते निश्चय प्रगट हो जायेगा अथवा तो व्यवहार के आश्रय से लाभ होगा, यह मान्यता भी मिथ्या है; और जिसे ऐसी मान्यता है, उसे शुद्धरत्नत्रय की भक्ति अथवा प्रतिमा नहीं होती । द्रव्यस्वभाव के निश्चय श्रद्धा - ज्ञानपूर्वक उसमें लीन होकर शुद्ध रत्नत्रय की आराधना करनेवाले श्रावक को परमार्थभक्ति है। जितनी चैतन्य में लीनता हो, उतनी भक्ति है । बीच में राग आवे, वह वस्तुतः भक्ति या धर्म नहीं है । श्रावक को भी शुद्धरत्नत्रय की जितनी आराधना है, उतनी परमार्थ भक्ति है ।
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इस प्रकार श्रावक की भक्ति की बात की है, कि ग्यारह भूमिकावाले श्रावक शुद्धरत्नत्रय का भजन करते हैं, वही भक्ति है।
अब मुनियों को कैसी भक्ति होती है, वह बात करते हैं । मुनिवरों को भी अन्तरस्वभाव के आश्रय से शुद्धरत्नत्रय की ही
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