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________________ www.vitragvani.com 46] [सम्यग्दर्शन : भाग-2 कथन आवे वहाँ उसे ही पकड़ बैठे परन्तु उसका आशय क्या है, वह न समझे – ऐसे जीव, देशना के योग्य नहीं हैं। जैसे कोई सच्चे सिंह को न जानता हो, उसे कोई बिलाव बताकर कहते हैं कि देख! सिंह ऐसा होता है। उस बिलाव को ही सिंह मान बैठे; उसी प्रकार जो निश्चय को नहीं जानता – ऐसा अज्ञानी तो व्यवहार को ही निश्चयरूप मान लेता है। मोक्षमार्ग के साथ राग वर्तता हो, उसका ज्ञान कराने के लिये राग को व्यवहारमोक्षमार्ग कहा, वहाँ उस राग को ही वास्तविक मोक्षमार्ग मान ले तो वह जीव, देशना के लिये अपात्र है, अर्थात् वह जीव यथार्थ वस्तुस्वरूप समझ नहीं सकेगा। अभी सम्यक्त्व और श्रावकपना या मुनिपना तो कहीं दूर रहा! चैतन्यद्रव्य में डूबने से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र होते हैं - ऐसा निर्णय करके, द्रव्य के आश्रय से जितने गुण प्रगट हों, तद्नुसार प्रतिमा इत्यादि होते हैं। श्रावकपना और प्रतिमा तथा मुनिपना – यह सब अखण्डद्रव्य के आश्रय से ही प्रगट होते हैं। सभी श्रावक, शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करते हैं। रत्नत्रय और रत्नत्रय की भक्ति दो अलग-अलग चीज नहीं है; द्रव्य के आश्रय से जितना रत्नत्रय प्रगट हुआ, उतनी रत्नत्रय की भक्ति है । चैतन्य के आश्रय से रत्नत्रय के गुण-अनुसार श्रावक के ग्यारह पद होते हैं और विशेष उग्ररूप से चैतन्य का आश्रय करने पर मुनिदशा तथा केवलज्ञान प्रगट होता है। धर्म की शुरुआत से पूर्णता तक एकमात्र चैतन्यस्वरूप के अतिरिक्त अन्य किसी का आश्रय नहीं है। ___ जो व्यवहारनय के आश्रय से लाभ मानता है, वह तो अनादिरूढ, व्यवहार में मूढ़ और निश्चय में अनारूढ़ है। निश्चयरहित अकेला व्यवहार तो अनादि से करता आया है, इसलिए अज्ञानी का व्यवहार Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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