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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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उसकी सन्मुखता करने से ही पूर्ण ज्ञान का स्वीकार हो सकता है। मैं अल्पज्ञ होने पर भी, सर्वज्ञ का आदर करता हूँ - उन्हें नमता हूँमेरे ज्ञान में उन्हें स्थापित करता हूँ, इस प्रकार नमस्कार करनेवाले को स्वयं को 'पूर्ण ज्ञान प्रगट होने का आधार कौन है' - इसकी दृष्टि हुए बिना वस्तुतः पूर्ण ज्ञान को नमस्कार नहीं हो सकता। इसलिए सर्वज्ञ को नमस्कार करने में वास्तव में तो अपने ज्ञानस्वभाव में ही नमना-झुकना आया है।
सिद्ध भगवान को नमस्कार करे, उसे यह जानना चाहिए कि उनका परिपूर्ण ज्ञान, इन्द्रियों के या पुण्य-पाप के आधार से नहीं खिला है परन्तु अन्तर के अनादि-अनन्त ज्ञानस्वभाव के आधार से ही वह ज्ञान खिला है; इसलिए मेरे ज्ञान का आधार भी मेरा ज्ञानस्वभाव ही है; कोई निमित्त या विकार मेरे ज्ञान का आधार नहीं है। यदि, शुभभाव के आधार से ज्ञान खिला – ऐसा माने तो पूर्ण होने के पश्चात् वह ज्ञान टिक नहीं सकेगा, क्योंकि वहाँ शुभराग
का तो अभाव है। यदि राग या इन्द्रियों के आधार से ज्ञान होता हो, तब तो उनका अभाव होने पर सिद्ध को ज्ञान का भी अभाव हो जाये ! इसलिए जो जीव, राग या इन्द्रियों के आधार से ज्ञान मानता है, वह पूर्ण ज्ञानी ऐसे सिद्ध भगवान को वास्तव में नमस्कार नहीं कर सकता, अर्थात् वह अपने स्वभाव की ओर नहीं ढल सकता। आत्मा की त्रिकाली ज्ञानशक्ति के आधार से ही केवलज्ञान प्रगट होता है – ऐसा समझकर, द्रव्यस्वभाव के सन्मुख होकर जो प्रतीति करता है, उसने ही अनन्त सिद्धभगवन्तों को वास्तविक वन्दन किया है। इस गाथा में वंदित्तु सव्वसिद्धे... द्वारा कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने
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