________________
www.vitragvani.com
34]
[सम्यग्दर्शन : भाग-2
सर्व सिद्धों को नमस्कार किया है, उसे आज लगभग २००० वर्ष व्यतीत हो गये हैं; उस दरमियान भी प्रत्येक छह महीने आठ समय में छह सौ आठ सिद्ध नये-नये हुआ ही करते हैं, अर्थात् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने सिद्धों को वन्दन किया, तब सिद्धों की जो संख्या थी, उसकी अपेक्षा अभी उसमें लाखों सिद्धों की संख्या बढ़ गयी है। जगत् में सिद्ध निरन्तर वृद्धिंगत ही है; इसी प्रकार जिसने आत्मा में सिद्धों को स्थापित किया, उसकी परिणति भी निरन्तर वृद्धिंगत ही है। उन सिद्धभगवन्तों को पुण्य-पाप नहीं, तथापि सर्वज्ञपना टिक रहा है, तो वह सर्वज्ञपना वस्तुस्वभाव के आधार से ही प्रगट हुआ है और टिका है। ऐसे सिद्धभगवन्तों को वन्दन करनेवाला जीव, अपने पुण्य-पापरहित स्वभाव का आदर
और विश्वास किये बिना सिद्धों को वास्तविक वन्दन नहीं कर सकता है। _ 'मैं सिद्धों को वन्दन करता हूँ', अर्थात् मेरी पर्याय में अल्पज्ञता और राग-द्वेष होने पर भी, उनका आदर न करके, मैं पूर्ण वस्तुस्वभाव के सन्मुख जाता हूँ... वस्तुस्वभाव में परिणमित होता हूँ - इसका नाम स्वभावदृष्टि / द्रव्यदृष्टि है और इसी का नाम सिद्ध को वन्दन है।
सर्वज्ञ भगवान को वर्तमान परसन्मुखता का कोई विकल्प न होने पर भी, सर्वज्ञता टिकी है तो वह सर्वज्ञता उन्हें स्वसन्मुखता से ही प्रगट हुई और टिकी है - ऐसा समझकर, जो स्वयं स्वभाव के सन्मुख हुआ, उसने सर्वज्ञ को भाव नमस्कार किया है। ऐसा नमस्कार, मोक्ष का कारण है। देखो, यह नमस्कार की महिमा!! पूर्व में जीव ने कभी ऐसा नमस्कार नहीं किया है।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.