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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2 ] [31 तो शरीर में ही मूर्च्छित हो जायेगा और बारम्बार नये शरीर धारण करके अनन्त जन्म-मरण में परिभ्रमण करेगा। मेरे चैतन्यतत्त्व को शरीर का सम्बन्ध ही नहीं है - ऐसी श्रद्धा करनेवाला जीव अल्प काल में अशरीरी सिद्ध होगा । चैतन्य जाति को शरीर से और विकार से भिन्न जानकर, तीन काल के सर्व पदार्थों से मैं भिन्न हूँ ऐसा जानकर, अपने ज्ञान को स्वभाव में एकाग्र करके, जो आत्मा की श्रद्धा-ज्ञान अनुभव करता है, उसे अपूर्व धर्म होता है । - सर्वज्ञ का धर्म सुसर्ण जानि आराध्य ! आराध्य ! प्रभाव आणि अनाथ एकान्त सनाथ होगा इसके बिना कोई न.... एक बार तो ज्ञान समुद्र में डुबकी मार ! पुण्य-पाप, वह परसमय है, अनात्मा है; उनका ही अस्तित्व जिसे भासित होता है और उनसे भिन्न चैतन्य का अस्तित्व भासित नहीं होता, वह मिथ्यादृष्टि है । पुण्य-पाप के समय ही चैतन्यस्वभाव में दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता जिसे भासित होती है, वह सम्यग्दृष्टि है । सम्यग्दर्शन के प्रभाव से पर्याय- पर्याय में स्वभाव में एकता ही होती जाती है; इसलिए आचार्य भगवान कहते हैं कि हे भाई! एक बार तू ऐसा तो मान कि ज्ञानस्वरूप ही मैं हूँ, रागादि मुझमें है ही नहीं। पर्याय में रागादि हों, वह मेरे स्वरूप में नहीं है और मेरा ज्ञान उस राग में एकमेक नहीं हो जाता । इस प्रकार राग और ज्ञान की भिन्नता जानकर एक बार तो राग से पृथक् पड़कर आत्मा के ज्ञान का अनुभव कर । तेरे ज्ञान समुद्र में एक बार तो डुबकी मार । (पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी) Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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