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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 2
हे जीव ! शरीर से भिन्न चैतन्य की शरण कर
आचार्यदेव कहते हैं कि हे भाई! तू समझ रे समझ ! अन्तर में देख! तेरा स्वभाव शरीर से और उस ओर की इच्छा से भिन्न है; इसलिए उनका आश्रय छोड़ और तेरे स्थायी चैतन्यस्वभाव का आश्रय कर, उसकी शरण ले ।
जिस शरीर को तू तेरा मान रहा है, उस शरीर में भी तेरा अधिकार नहीं चलता तो फिर जो पदार्थ प्रत्यक्षरूप से दूर है, उनमें तेरा कैसे चलेगा ? तू पर का कुछ नहीं कर सकता; परपदार्थ तुझसे भिन्न हैं; इसलिए उन पदार्थों के आश्रय से जो मोहादि भाव होते हैं, वे भी तेरे स्वरूप से भिन्न हैं । इन सबसे पृथक् तेरे चैतन्यतत्त्व को पहचानकर उसकी शरण ले तो तुझे धर्म और शान्ति प्रगट होगी।
वर्तमान अपूर्णदशा में राग होता होने पर भी, हे भाई! तू तेरे ज्ञान में ऐसा निर्णय और श्रद्धा तो कर कि राग और अपूर्णता, मैं नहीं हूँ; मैं तो उस राग और अपूर्णता से रहित पूर्ण ज्ञानस्वभावरूप हूँ । यदि तू ऐसा निर्णय करेगा तो तुझे अन्तर में अवसर रहेगा - राग और शरीर से पृथक्पने का भान जागृत रहेगा। जीवन में भी शरीर से पृथक् चैतन्य का भान किया होगा तो शरीर से छूटने के प्रसंग में, अर्थात् मृत्यु के समय शरीर में मूर्च्छित नहीं होगा और शरीर से भिन्न चैतन्य की जागृति रहेगी तथा आत्मा के आनन्दपूर्वक समाधि होगी।
अहो! मैं चैतन्य भगवान हूँ, शरीर से भिन्न हूँ - ऐसा जिसने भान किया है, उसे शरीर से छूटने का (जन्म-मरणरहित होने का ) मौका / अवसर आयेगा। जो शरीर में ही एकता मान बैठा है, वह
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