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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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बताऊँगी।' तब उस मनुष्य ने आश्चर्य से कहा – 'अरे ! तू इस मधुर जल के सरोवर में पड़ी है, तेरे पास पानी भरा है, फिर भी तुम मुझसे पानी माँग रही हो?' उत्तर में मछली ने कहा – 'भाई ! तेरा ज्ञान तो तेरे अन्तर में पूरा-पूरा है, उसमें से ज्ञान निकाल, बाह्य में से ज्ञान नहीं आता।' देखो, अपने में ज्ञान भरा है, उसे तो जीव जानता नहीं और बाहर में ज्ञान खोजता है, तो कैसे प्राप्त होगा? अन्तरस्वभाव में ज्ञान भरा है, उसे पहचानने से सम्यग्ज्ञानरूपी चन्द्रमा का उदय होकर आत्मा की मुक्ति होती है। ____ वास्तविक जिज्ञासु को गृहस्थाश्रम में भी आत्मा का भान होता है। राज-पाट, स्त्री-पुत्रादि होने पर भी आत्मा को समझ सकता है और कल्याण होता है। आत्मा को समझे बिना, वह स्त्री-पुत्रादि अथवा घर-बार को छोड़कर जङ्गल में रहे तो भी उसका कल्याण नहीं होता।
आत्मस्वभाव महिमावन्त है, वह मोक्षसुख का प्रदाता है; वह स्वानुभव से ज्ञात होता है किन्तु वाणी के विस्तार से ज्ञात नहीं होता। ऐसे आत्मस्वभाव को जाननेवाले लाखों-करोड़ों जीवों में कोई विरले ही होते हैं। ऐसा आत्मा जयवन्त वर्तता है और आत्मा को जाननेवाले भी सदा होते हैं। यद्यपि आत्मा को जाननेवाले विरले ही होते हैं परन्तु उनका विरह कभी नहीं होता। पूर्व काल में आत्मा को जाननेवाले थे, वर्तमान में हैं और भविष्य में भी होंगे। __ऐसे आत्मा को जानने से मुक्ति प्रगट होती है और संसार में परिभ्रमणरूप जन्म-मरण का अभाव होता है। इसलिए आत्मा को जानना ही मनुष्यभव का कर्तव्य है।
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