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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] विरले जीव ही आत्मा को जानते हैं | हे जीवों! भावमरण से बचने के लिये आत्मा को पहचानो "संसारी जीवनां भावमरणो टालवा करुणा करी, सरिता वहावी सुधा तणी प्रभु वीर! ते संजीवनी।" (समयसार स्तुति) अपने ज्ञान-आनन्दमय जीव को भूलकर, अज्ञान के कारण अनादि काल से जीव, संसार-परिभ्रमण कर रहा है और प्रतिक्षण भावमरण से मर रहा है। उस भावमरण का अभाव करने के लिये यह बात है। आत्मा स्वयं सुखस्वरूप है, आत्मा में शान्ति है; जिसे इस बात का पता नहीं है, वह बाहर में शान्ति मानता है परन्तु वहाँ शान्ति नहीं है। शरीर, पैसा, परिवार इत्यादि वस्तुओं में सुख नहीं है, वे तो परवस्तुएँ हैं। वे पड़ी रहती हैं और आत्मा कहीं चला जाता है, इसलिए उनमें सुख नहीं है किन्तु जीव, अज्ञान से उनमें सुख मानता है और शरीर इत्यादि में अपनापना मानता है - यही संसार है और इसी का दुःख है । उस दु:ख के अभाव का उपाय बताते हुए ज्ञानी कहते हैं कि भाई ! सुख तो आत्मा में है। यह बात समझने से ही शान्ति प्राप्त होती है परन्तु पहिले इसकी रुचि होना चाहिए कि अरे रे! मैं कौन हूँ? मेरा क्या स्वरूप है ? अनन्त काल में महामूल्यवान् मनुष्यभव प्राप्त हुआ तो उसमें आत्मा का स्वरूप है ? - यह जानने से दुःख का अभाव होगा। संसारी जीव के भावमरण का अभाव होने के लिये ज्ञानियों का करुणापूर्ण उपदेश है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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