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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
रे भव्य! तू तत्त्व का कौतुहली होकर
आत्मा का अनुभव कर! भेदज्ञान की प्रेरणा के लिए यह श्लोक है -
अयि! कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन् अनुभवभवमूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम्। पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन त्यजसि झटिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम्॥
(समयसार कलश-२३) श्री आचार्यदेव, कोमल सम्बोधनपूर्वक कहते हैं कि हे भाई! तू किसी भी प्रकार महाकष्ट से अथवा मरकर भी तत्त्व का कौतूहली हो और शरीर आदि मूर्त द्रव्यों का एक मुहूर्त, अर्थात् दो घड़ी पड़ोसी होकर आत्मा का अनुभव कर कि जिससे अपने आत्मा को सर्व परद्रव्यों से भिन्न देखकर, इस शरीर आदिक मूर्तिक पुद्गलद्रव्य के साथ एकपने के मोह को तू शीघ्र ही छोड़ देगा।
मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व का नाश कैसे हो? और विपरीत मान्यता तथा विपरीत पाप अनादि के कैसे मिटें? उसका उपाय बताते हैं।
देखो, आचार्यदेव कड़क सम्बोधन करके नहीं कहते, किन्तु कोमल सम्बोधन करके कहते हैं कि हे भाई! क्या यह तुझे शोभा देता है ? कोमल सम्बोधन करके जगाते हैं कि अरे जीव! तू किसी भी प्रकार महाकष्ट से अथवा मरण करके भी, अर्थात् मरण जितने कष्ट आयें तो भी वह सब सहन करके तत्त्व का कौतूहली हो। ___जैसे, कुएँ में मशीन डालकर उसकी थाह लाते हैं; उसी प्रकार ज्ञान से भरपूर चैतन्य कुएँ में पुरुषार्थरूपी गहरी मशीन डालकर
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