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सम्यग्दर्शन : भाग-2 ]
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जिन्हें भवरहित होना हो वे अनुभव का अभ्यास करो
श्री मुनिराज, निस्पृह करुणाबुद्धि से कहते हैं कि अरे प्राणियों ! आत्मा का शुद्धस्वभाव समझे बिना अनन्त काल में दूसरे सब भाव किये हैं, वे कोई भाव उपादेय नहीं हैं; आत्मा का निश्चयस्वभाव ही उपादेय है – ऐसी तुम श्रद्धा करो।
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इस दुर्लभ मनुष्यभव में भी यदि जीव अपने स्वभाव को जानकर, उसका आदर नहीं करे तो फिर से कब ऐसा अवसर मिलनेवाला है? अपना जैसा पूर्णस्वभाव है, वैसा पहचानकर उसका ही आदर करना - श्रद्धा करना, यही इस मनुष्यपने में जीव का कर्तव्य है ।
जिन्हें अल्प काल में भवरहित होना है - ऐसे निकट भव्यजीव इस शुद्ध आत्मा का आदर करो, इसकी पहचान करो, इसके अनुभव का अभ्यास करो ।
समुद्र मन्थन में से प्राप्त रत्न
तदेवैकं परं रत्नं सर्वशास्त्रमहोदधेः । रमणीयेषु सर्वेषु तदेकं पुरतः स्थितम् ॥४३ ॥
वह एक चैतन्यस्वरूप आत्मा ही समस्त शास्त्ररूपी महासमुद्र का परम रत्न है (अर्थात् उस चैतन्यरत्न की प्राप्ति के लिए ही समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया जाता है ।) सर्व रमणीय पदार्थों में वह चैतन्यस्वरूप आत्मा ही एक रमणीय तथा उत्कृष्ट है।
(पद्मनन्दिपंचविंशति )
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