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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
भिन्न-भिन्न जानकर, बन्ध को छोड़ता है और आत्मस्वभाव को ही ग्रहण करता है। यह बात समयसार के मोक्ष अधिकार में है। अभी ऐसा सम्यग्दर्शन किस प्रकार हो? - यह बात चलती है।
आत्मा किसी पर का कर्ता या हर्ता नहीं है तथा आत्मा का कर्ता-हर्ता कोई नहीं है। आत्मा स्वयं पर के अवलम्बनरहित है। पर की अपेक्षा बिना अपने सहज ज्ञानस्वभाव की दृष्टि ही सम्यग्दर्शन है। विकल्प द्वारा आत्मा का ग्रहण नहीं होता, विकल्प आत्मा की चीज नहीं है; विकल्परहित आत्मस्वभाव है, वही ग्रहण करनेयोग्य है। आत्मा का जो स्वभाव है, उसे श्रद्धा में मानना, ज्ञान में जानना, और उसमें एकाग्र होना - इसका नाम शुद्धात्मा का ग्रहण है।
( श्री नियमसार, गाथा ३८ के प्रवचन में से)
सिद्धसमान सदा पद मेरो श्री आचार्यदेव कहते हैं कि मैं प्रभु हूँ, पूर्ण हूँ' - ऐसा निर्णय करके तुम प्रभुत्व मानना। सर्वज्ञ भगवान और अनन्त ज्ञानी-आचार्यों ने समस्त आत्माओं को पूर्णरूप से देखा है। तू भी पूर्ण है, परमात्मा जैसा है। ज्ञानी, स्वभाव देखकर कहते हैं कि तू प्रभु है क्योंकि भूल
और अशुद्धता तेरा स्वरूप नहीं है। अवस्था में क्षणिक भूल है, उसे हम गौण करते हैं। हम भूल को नहीं देखते क्योंकि हम भूलरहित
आत्मस्वभाव को मुख्यरूप से देखनेवाले हैं और ऐसे पूर्णस्वभाव को स्वीकार करके, उसमें स्थिरता द्वारा अनन्त जीव परमात्मदशारूप हुए हैं; इसलिए तुझसे हो सके, ऐसा ही कहा जाता है.... 'मैं सिद्धसमान प्रभु हूँ' - ऐसा विश्वास तुझे तुझसे न आवे, तब तक सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा कथित बातें तेरे हृदय में नहीं बैठेगी।
(पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी)
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