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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] [15 स्वभाव पूरा है, उससे विपरीत पड़कर बाहर में भी अपनी पूर्णता मानता है। स्वयं पूरा है परन्तु दृष्टि में गुलाँट मारी है, इसलिए बाहर में पूर्णता मान बैठा है। बाहर में पूर्णता माननेवाला स्वयं ही पूरा है परन्तु जहाँ पूर्णता है, वहाँ न मानकर; जहाँ नहीं, वहाँ अपनापन माना है। श्री आचार्यदेव कहते हैं कि तेरा शुद्धस्वभाव ही उपादेय है, उसकी ही तू मान्यता कर; इसके अतिरिक्त दूसरा कोई तुझे ग्रहण करनेयोग्य नहीं है। पर्याय में रागादि होने पर भी वे ग्रहण करनेयोग्य नहीं हैं - ऐसी श्रद्धा करना, वह धर्म है। रागादि में आत्मा नहीं है, तथापि वहाँ मिथ्याकल्पना करके अपनापन मान रहा है, वह असत् मान्यता ही अधर्म है और जो अपना स्वभाव सत् है, उसे ही मान्यता में स्वीकार करना, वह सत् की मान्यता है और धर्म है। __अज्ञानी जीव – पैसा, बँगला, स्त्री इत्यादि को शरणभूत मानता है परन्तु जब बिच्छू डंक मारता है, वहाँ चिल्लाता है; उस समय पैसा, बँगला और स्त्री इत्यादि वस्तुएँ वह की वही होने पर भी क्यों शरणभूत नहीं होती? पहले उनमें सुख मानता था न? कहाँ गयी तेरी सुख की कल्पना? इसलिए हे अज्ञानी ! तू समझ कि वे कोई भी बाहर के पदार्थ तुझे शरणभूत नहीं हैं तथा जो सुख की कल्पना की थी, वह कल्पना भी शरणभूत नहीं है और जिसके फल में ये संयोग मिले हैं, वह पुण्य भी तुझे शरणभूत नहीं है; ये सब तुझसे बाह्यतत्त्व हैं और तेरा एकरूप चैतन्यस्वभाव अन्त:तत्त्व है और वही शरणभूत है। उस स्वभाव की पहचान आचार्यदेव कराते हैं। यह आत्मा अपने स्वभाव से पूरा है। वर्तमान पर्याय में जो Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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