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[ सम्यग्दर्शन : भाग-2
अपूर्णता दिखती है, उतना वह नहीं है। पर्याय का लक्ष्य छोड़कर द्रव्यस्वभाव के लक्ष्य से जो एकरूप स्वभाव ज्ञात होता है, वही आत्मतत्त्व है और वही उपादेय है। जब तक उसका अनुभव न हो, तब तक उसके लक्ष्य से बारम्बार उसका श्रवण, मनन करना चाहिए और उसकी महिमा का बारम्बार चिन्तवन करना चाहिए। अनादि से पर्याय जितना मानकर स्वयं उसकी महिमा में अटका है और विकार का ही अनुभव किया है, उसके बदले स्वभाव की महिमा करे तो विकाररहित शुद्धभाव का अनुभव होता है और विकार की महिमा छूट जाती है; सुखी होने का मार्ग यही है ।
आत्मा एकरूप द्रव्य है । उसकी पर्याय में सात तत्त्वों के विकल्परूपी लहरें उठें, वह आत्मा नहीं है तथा नौ पदार्थ के राग मिश्रित विचार आवें, वह भी आत्मा नहीं है । 'मैं जीव हूँ' - ऐसे विकल्प में अटकना, वह अज्ञानबुद्धि है, क्योंकि 'मैं जीव हूँ अजीव नहीं' - ऐसे विकल्प, वे आत्मा नहीं हैं; विकल्प तो मलिन तरंग है, शुभरा है। उसे आत्मा मानना तो एक मलिन तरंग को ही सम्पूर्ण समुद्र मान लेने जैसा है। उस विकल्प को गौण करने पर जो अकेला चैतन्यदल रह जाता है, वह आत्मस्वभाव है। चतुर मनुष्य एक मलिन तरंग को देखकर सम्पूर्ण समुद्र को मलिन नहीं मान लेता परन्तु वह जानता है कि सम्पूर्ण समुद्र स्वच्छ है, यह मलिन तरंग उसका स्वरूप नहीं है। समुद्र, इस मलिनता को उछालकर बाहर फैंक देगा। इसी प्रकार जीव- अजीव के जो विकल्प उठते हैं,वह मलिन तरंग के समान क्षणिक विकार है, सम्पूर्ण आत्मा, विकारवाला नहीं; आत्मा का स्वभाव, उस विकाररूप नहीं हो गया है - ऐसा ज्ञानी जानता है ।
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