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________________ www.vitragvani.com 14] [सम्यग्दर्शन : भाग-2 हाथ में लेकर ऐसा माने कि मैं अग्नि का मजा लेता हूँ और मुझे बहुत आनन्द आता है परन्तु अग्नि से स्वयं का हाथ जल जाता है, इसका भान नहीं है; इसी प्रकार पुण्य-परिणाम के वेदन से तो आकुलतारूपी अग्नि में आत्मा जल रहा है परन्तु अज्ञानी उसमें शान्ति मानता है। आत्मा अपने स्वभाव से भरपूर है परन्तु अज्ञानी जीव, स्वभाव की महिमा नहीं समझता, इसलिए स्वभाव की शरण नहीं लेता; उसकी दृष्टि निमित्त पर है, इसलिए निमित्तों की उपस्थिति में उसे स्वयं की शरण लगती है। बाहर के पदार्थों से तो स्वयं खाली है और अन्तर में शुद्ध आनन्दघनस्वभाव से भरपूर है, वह उपादेय और शरणभूत है परन्तु उसके भान बिना, बाहर की क्षणिक वस्तुओं से स्वयं को भरपूर मानता है, स्वयं को मालरहित मानता है परन्तु बाहर के पदार्थों में से कभी जीव की शान्ति नहीं आ सकती है। कोई पुण्यपरिणाम करके उससे अपने को भरपूर मानता है, क्षणिक परिणाम में ही अर्पित होकर उसमें ही आत्मा का सर्वस्व मान बैठा है परन्तु क्षणिक पुण्य-परिणाम से रहित सम्पूर्ण वस्तु ज्ञानकन्द है, उसे नहीं जानता है। जीव का श्रद्धागुण ऐसा है कि जहाँ उसकी दृष्टि पड़े, वहाँ वह स्वयं को पूर्ण मानता है। स्वयं का मूलस्वभाव पूरा है, इसकी श्रद्धा छोड़कर अज्ञानी ने विकार और पर में अपनापना माना है; इसलिए विकार और पर से ही अपने को भरपूर / पूर्ण मानता है परन्तु उनसे पृथक् स्वरूप है, उसे नहीं मानता। जहाँ-जहाँ दृष्टि दे, वहाँ-वहाँ भरपूर और पूर्ण ही मानता है, अधूरा नहीं मानता। अन्दर में अपना Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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