________________ www.vitragvani.com 190] [सम्यग्दर्शन : भाग-2 चैतन्यस्वभाव की भावना से राग-द्वेष शान्त हो जाने पर जीव उन अशान्त दु:खों से मुक्त होता है और अतीन्द्रिय शान्ति-आनन्द का अनुभव करता है - यह पञ्चास्तिकाय के अवबोध का फल है। ___ जो जीव, शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मस्वभाव का निश्चय करके उसके सन्मुख होकर वर्तता है, वह जीव, बन्धनरहित होकर, दुःख से मुक्त होकर परम आनन्द को पाता है। अनादि से स्वरूप की सन्मुखता किये बिना जीव महादुःख में जल रहे हैं। जिस प्रकार उफनते हुए तेल में शकरकन्द सिकता है; उसी प्रकार घोर दु:ख के गढ्ढे में राग-द्वेष-मोह से जीव आकुलित हो रहे हैं; उस दुःख से मुक्त होने की रीति आचार्यदेव ने इस 103 वीं गाथा में बतलाई है। जो वन-जङ्गल में बसनेवाले महान सन्त हैं, जो विदेहक्षेत्र में जाकर भगवान सीमन्धर परमात्मा की वाणी सुनकर आये हैं, जिनके चारित्र का पावर प्रस्फुटित हुआ है और जो चैतन्य के आनन्द में झूला झूल रहे हैं - ऐसे भगवान कुन्दकुन्द आचार्यदेव का यह कथन है। जो जीव, आत्मार्थी होकर समझेगा, वह दु:ख से परिमुक्त होकर परमानन्द को प्राप्त करेगा। [पञ्चास्तिकाय, गाथा 103 पर पूज्य गुरुदेवश्री का प्रवचन ] ( ॐॐ) Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.