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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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परन्तु यदि अपनी परिणति को स्वभाव के साथ जोड़कर, राग-द्वेष को छोड़े तो कर्म की परम्परा टूट जाती है। जिस प्रकार परमाणु अपने स्वरूप में एकाकीरूप वर्तता है; उसी प्रकार स्वरूप में एकत्वरूप से लगा हुआ जीव भी राग-द्वेषरहित होता हुआ, कर्मबन्धरहित होकर एकाकीरूप अर्थात् मुक्तदशारूप परिणमित होता है। __नियमसार में कहते हैं कि जड़स्वरूप पुद्गल की स्थिति, पुद्गल में ही है - ऐसा जानकर वे सिद्ध भगवन्त अपने चैतन्यात्मक स्वरूप में क्यों नही रहेंगे? वहीं और भी कहा है कि यदि परमाणु एक वर्णादिरूप प्रकाशित निजगुण समुह में है तो उससे मेरी कुछ कार्यसिद्धि नहीं है। इस प्रकार निजहृदय में मानकर, परम सुखपद का अर्थी भव्य समूह, शुद्ध आत्मा को एक को भजो।
जिस प्रकार परमाणु जघन्य स्निग्धतारूप परिणमित होता है, तब वह स्कन्धरूप बन्ध से भिन्न हो जाता है; इसी प्रकार आत्मा भी परमात्मभावना की उग्रता द्वारा एकत्वस्वरूप में परिणमता हुआ कर्मबन्धन से भिन्न हो जाता है। इस प्रकार एक परमाणु और सिद्धपरमात्मा की तरह जो जीव अपने एकत्वस्वरूप में वर्तता है, उसे नवीन बन्धन नहीं होता और पूर्व में बँधे हुए कर्म भी छूट जाते हैं; इसीलिए वह अशान्त दुःखों से मुक्त हो जाता है।
जिस प्रकार शीतल जल तो शान्त होता है परन्तु वह ऊष्ण होने पर खौलने लगता है और अशान्त हो जाता है; इसी प्रकार शान्त जल से भरे हुए चैतन्यसरोवर भगवान आत्मा में राग-द्वेष की ऊष्णता होने पर दु:ख के बुलबुले उत्पन्न होते हैं, अशान्ति होती है;
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