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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 2
और रागादि परिणति को छोड़ देता है। तात्पर्य यह है कि निजस्वभाव को छोड़ता नहीं और परभाव का ग्रहण नहीं करता ।
यद्यपि उस जीव को राग के काल में भेदज्ञान वर्तता है परन्तु कहीं राग के कारण वह भेदज्ञान नहीं है । राग के साथ ही वर्तते हुए भेदज्ञान के कारण साधक जीव, उस राग में अभेदता न करके, शुद्धस्वभाव में अभेदता करता जाता है और राग को छोड़ता जाता है। रागरूपी चिकनाहट के छूटने पर कर्म भी छूट जाते हैं । जिस प्रकार परमाणु में स्पर्श की स्निग्धता इत्यादि जघन्य हो जाने पर वह परमाणु स्कन्ध से पृथक् हो जाता है; उसी प्रकार स्वभावसन्मुख झुके हुए जीव को रागादिरूप स्निग्धता छूट जाने से वह जीव, कर्मबन्धन से छूट जाता है ।
श्रोता किसलिए सुनता है ? सुनकर आत्मस्वरूप की प्राप्ति करने के उद्देश्य से सुनता है। जैसा आत्मस्वरूप सुनता है, वैसा ही श्रद्धा-ज्ञान-अनुभव में लेने का उद्यम करता है; उद्यमपूर्वक अर्न्तस्वरूप में एकता करके, कर्म के साथ का एकत्व तोड़ देता है । राग-द्वेषपरिणति द्वारा कर्मबन्ध की परम्परा चलती थी परन्तु जहाँ अन्तर्मुख होकर राग-द्वेषपरिणति को तोड़ दिया, वहाँ पुराने और नये कर्मों के बीच की सन्धि टूट गयी अर्थात् कर्म की परम्परा रुक गयी और वह जीव संसार दुःख से परिमुक्त हुआ ।
जीव, स्वभाव के साथ एकत्व से कर्म के साथ एकत्व तोड़कर उनकी परम्परा को छेद देता है । ऐसा नहीं है कि पुराने कर्म, नये बन्ध का कारण हुआ ही करे । जब जीव, राग-द्वेषपरिणति द्वारा कर्म के साथ जुड़ता है, तब ही कर्म की परम्परा चालू रहती है
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