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सम्यग्दर्शन : भाग-2]
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सन्तों की ऐसी ललकार सुनकर रुक जाता है और अन्तर में विचार करके उसका विवेक करता है कि अहा! यह बात परमसत्य है, यह मेरे हित की बात है, किन्तु जो जीव भ्रान्ति के वश पड़ा है, जिसकी विचारशक्ति तीव्र मोह के कारण कुण्ठित हो गयी है - ऐसा जीव तो हितोपदेशक को भी अहितरूप समझकर 'यह तो हमारा व्यवहार भी छुड़ाते हैं इस प्रकार उनसे भय खाकर, विपरीत दिशा में ही अर्थात् रागादि और बाह्य विषयों में ही दौड़ता है और भव-भ्रमण के जाल में फँसकर दुःखी होता है। अपने हित का विचार करके, जो जीव स्वभावसन्मुख होता है और परभाव की परिणति से परान्मुख होता है, वह जीव, दु:ख से छूटकर, परम आनन्द को प्राप्त करता है।
देखो, आचार्यदेव ने इस एक गाथा में बहुत-सी बातें बतला दी हैं। आत्मार्थता से लेकर मोक्ष तक की बातें इसमें समझायी हैं। प्रथम तो जिसमें कालसहित पाँच अस्तिकाय का वर्णन हो, वही जिनप्रवचन है। मोक्षार्थी जीव उस जिनप्रवचन में कहे हुए द्रव्यों को जानता है; अर्थी होकर जानता है' अर्थात् आत्मा का हित प्राप्त करने की वास्तविक गरज से जानता है; अर्थतः जानता है' अर्थात् मात्र शब्दों की धारणा से नहीं किन्तु उनकी भाव-भासनपूर्वक जानता है। समस्त पदार्थों को जानकर, उनमें रहे हुए अपने आत्मा को पृथक् करके यह निश्चय करता है कि शुद्ध चैतन्यस्वरूप स्ववस्तु है, वही मैं हूँ - ऐसा निश्चय करके स्वभावसन्मुख ढलता है। अपने आत्मा में भी रागादि अशुद्धभावों के पहलु का आदर न करके, शुद्धस्वरूप का आदर करता है। पर्याय में विकार होने पर भी, उसी समय विवेकज्योति के बल से शुद्धस्वरूप में ढलता है
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