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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 2
पानी के समान दुःख है... परन्तु भ्रान्ति के आवेश में भूले हुए जीव, स्वभाव की शान्ति से तो दूर भागते हैं और बाह्य विषयों के दुःख में दौड़कर, व्याकुलित होते हैं। जिस प्रकार भ्रान्ति के आवेश में पड़ा हुआ मृग, विपरीत दिशा में दौड़ता है; उसी प्रकार अज्ञानी जीव की दशा हो रही है ।
एक दिशा में मृग को पकड़ने के लिए किसी शिकारी में जाल बिछाया हो और यह देखकर कोई दयालु महाजन, उस मृग को बचाने के उद्देश्य से उसे दूसरी दिशा में जाने के लिए संकेत करता है, वहाँ भ्रान्तिवश, वह मृग उस बचानेवाले को ही मारनेवाला समझकर, उससे डरकर विपरीत दिशा में अर्थात् जिस दिशा में जाल बिछा है, उसी दिशा में दौड़ता है और अन्त में जाल में फँस जाता है ।
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इसी प्रकार मोह की भ्रान्ति के वश पड़ा हुआ, मृग के समान अज्ञानी प्राणी अनादि से ही विपरीत दौड़ कर रहे हैं और बाह्य बिषयों में राग में सुख मान - मानकर, उसी में दौड़ रहे हैं । ज्ञानी महाजन करुणापूर्वक उन्हें विषयों से परान्मुख करके स्वभावसन्मुख करते हुए कहते हैं - अरे प्राणियों ! बाह्य बिषयों की सन्मुखतारूप वृत्ति में सुख नहीं है, उसमें तो आकुलता की खलबलाहट है। अरे! व्यवहार की शुभवृत्ति में भी सुख नहीं है, उसमें भी आकुलता की खलबलाहट है; इसलिए इन बाह्य वृत्तियों से परान्मुख होओ... वापिस मुड़ो... और अन्तर के चिदानन्दस्वभाव में सुख है, उसमें अर्न्तमुख होओ... अर्न्तमुख होओ !
अब, वहाँ जो जीव जिज्ञासु है, आत्मार्थी है, वह तो ज्ञानी
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