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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-2] [185 ज्ञान कराकर, आचार्यदेव कहते हैं कि तेरे शुद्धस्वभाव को मुख्य रूप से लक्ष्य में लेकर, उसकी आराधना कर... और अशुद्धता को गौण करके, उसका आश्रय छोड़। ___ व्यवहार को उस काल में अर्थात् जब पर्याय को जानते हैं, उस काल में जाना हआ प्रयोजनवान कहा है परन्तु उसका आश्रय करने के लिए नहीं कहा है। जब पर्याय को देखते हैं, उस काल में साधक को विकार अपने में आरोपित हुआ, ज्ञान में आता है परन्तु विकार अनुभव में आने पर भी उसी काल में साथ ही शुद्ध चिदानन्दस्वभाव का भान भी वर्तता होने से, वह साधक विकार से विमुख होकर शुद्धस्वरूप में ढलता जाता है अर्थात् स्वभाव और विभाव में निरन्तर भेदज्ञान वर्तता होने से, वह साधक, रागादि परिणति को शुद्धस्वरूप रूप से कभी अङ्गीकार नहीं करता; अपितु उसे परभावभूत उपाधि जानकर छोड़ता जाता है। रागपरिणति छूटने से कर्मबन्धन की अनादि की परम्परा टूट जाती है। अनादि से रागपरिणति से कर्म का बन्धन और उसके उदय के समय पुनः रागपरिणति और फिर से कर्म का बन्धन - ऐसी परम्परा अभिच्छिन्नधारा से चल रही थी, किन्तु अब जिसकी परिणति स्वभावसन्मुख हो गयी है - ऐसे जीव को रागादि परिणति छूट जाने पर कर्मबन्धन की परम्परा भी छूट जाती है, उसे नवीन कर्म का संवर होता जाता है और पुराने कर्म झरते जाते हैं; इस प्रकार समस्त कर्मों से विमुक्त होता हुआ वह जीव, दुःख से परिमुक्त होता है। दुःख कैसा है? खौलते पानी के समान, अशान्तरूप है। अन्तर्मुख स्वभाव में सुख है और बाह्य विषयों में खौलते हुए Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007769
Book TitleSamyag Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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