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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 2
इस प्रकार शास्त्रों में मोक्षार्थी जीव के लिए ही सन्तों का
उपदेश है ।
यहाँ भी यही कहते हैं कि अर्थतः अर्थी होकर, इस शास्त्र को जानना और इसमें कहे गये पदार्थों में से ' अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वरूप जीव ही मैं हूँ' - ऐसा निश्चय करना ।
जगत् में समस्त पदार्थों का अस्तित्व होने पर भी, किसी एक की सत्ता दूसरे में नहीं है, सभी द्रव्य अपने-अपने स्वरूप मर्यादा में वर्त रहे हैं; अपने स्वरूप की मर्यादा का उल्लंघन करके कोई द्रव्य पर में नहीं जाता है। जीव अपने स्वरूप की (विकार की अथवा अविकार की) मर्यादा छोड़कर पर में नहीं जाता और जीव की स्वरूप-मर्यादा में परद्रव्य नहीं आते। अब तदुपरान्त जीव के शुद्ध चैतन्यस्वरूप में विकार का भी प्रवेश नहीं है, विकार तो बहिर्लक्ष्यी उपाधिरूप भाव है, शुद्ध चैतन्य के साथ उसकी एकता नहीं हो सकती।
देखो, सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्ररूप जो निर्मलभाव प्रगट होता है, वह तो जीव के स्वरूप में अभेद हो जाता है; इसलिए उसे तो जीव कहा है परन्तु विकल्पभावों को जीव के शुद्धस्वरूप के साथ अभेदता नहीं होती; इसलिए शुद्धस्वरूप की दृष्टि से वे जीव नहीं, किन्तु अजीव हैं । पर्याय अपेक्षा से देखने पर विकार, निश्चय से अर्थात् अशुद्धनिश्चय से अपना ही है, वह अपना ही अपराधभाव है और शुद्ध द्रव्यस्वभाव की दृष्टि से देखने पर अर्थात् शुद्ध निश्चयनय से विकार, जीव में दिखता ही नहीं; जीव तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप ही दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार दोनों पहलुओं का
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