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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
जैसा हमारा आत्मा, वैसा ही तुम्हारा आत्मा है; इसलिए हे जीव! तू अपने स्वभाव की महिमा को लक्ष्य में ले।
देखो, अरहन्त-सिद्ध अथवा सन्त-महात्माओं की सच्ची महिमा भी तभी ज्ञात होती है कि जब अपने स्वभाव की महिमा को समझे। सर्वज्ञ और सन्त जिस मार्ग से अन्तर में स्थिर हैं, वह मार्ग तेरा तुझमें ही है। अन्तर के चिदानन्दस्वरूप में से सहज शीतल आनन्द प्रगट करके उन्होंने आताप का नाश किया है, तू भी आताप का नाश करके सहज शीतल आनन्द प्रगट करने के लिए अपने चिदानन्दस्वरूप की तरफ जा।
हे जीव! तेरे आनन्द का अस्तित्व तेरे स्वभाव में है, बाहर नहीं। जगत् के बाह्य पदार्थों की जो कुछ परिणति होती हो, उसके साथ तुझे कुछ लेना-देना नहीं है। तेरे दुःख में भी तू अकेला और तेरी शान्ति में भी तू अकेला है। सर्वज्ञ तेरे समीप विराजमान हों तो भी वे तेरी परिणति को सुधार दें - ऐसा नहीं है और अनेक शत्रुओं ने तुझे घेर लिया हो तो भी वे तेरी शान्ति को बिगाड़ सकें - ऐसा नहीं है। तेरे अन्तर स्वभाव के अवलम्बन बिना दूसरों से तुझे शान्ति आनेवाली नहीं है और तेरे स्वभाव के अवलम्बन से जो शान्ति प्रगट हुई है, वह किसी दूसरे से बिगड़नेवाली नहीं है। अहा! कितनी स्पष्ट वस्तुस्थिति है ! तथापि अज्ञानी जीव का यह भ्रम नहीं मिटता कि बाहर से मेरी शान्ति आती है और दूसरा मेरी शान्ति को लूट लेता है। ___यदि जीव इस वस्तुस्थिति को समझ ले तो अन्तर्मुख होकर अपनी शान्ति अपने अन्तर में ही शोध ले और अन्तर-शोधन से शान्ति उपलब्ध हुए बिना नहीं रहे। भगवान और सन्तों को प्रगट
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