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[सम्यग्दर्शन : भाग-2
लक्ष्य तो 'मेरा आत्मा ज्ञानस्वरूप है' - ऐसा निर्णय करने का ही था। मेरा आत्मा शुद्ध ज्ञानस्वरूप है; इस प्रकार अन्तर में लक्ष्यगत करके सुना और वैसा निर्णय किया।
पञ्चास्तिकाय अर्थात् जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश को जानकर उनके विचार में अटकना नहीं है परन्तु 'मेरा आत्मा अत्यन्त विशुद्ध चैतन्यस्वभावी है' - ऐसा निश्चय/निर्णय करना है। पाँच द्रव्यों को अर्थरूप से जानने पर उसमें ऐसे जीवास्तिकाय का ज्ञान आ ही जाता है। भगवान के प्रवचन छह द्रव्यों का स्वरूप कहनेवाले हैं। उन छह द्रव्यों का स्वरूप जानकर अपने आत्मा को शुद्ध ज्ञानस्वभाव निश्चित करना ही, भगवान के प्रवचन का सार है। भगवान के प्रवचन वस्तुतः किसने जाने कहे जाएँ? जिसने अपनी आत्मा को शुद्ध ज्ञानस्वभावरूप निश्चित किया, उसने ही वास्तव में भगवान के प्रवचन को जाना। निज तत्त्व के निर्णय बिना परतत्त्व का यथार्थ ज्ञान कभी होता ही नहीं। इसलिए निज तत्त्व का निर्णय करके उसमें एकाग्र होना ही भगवान के सर्व प्रवचन का तात्पर्य है, जिसके सेवन से दुःख का अभाव होकर सुख की प्राप्ति होती है।
जगत् के तत्त्वों को जानकर, अन्तरोन्मुख होकर अपने आत्मा को जगत् से पृथक् शुद्ध चैतन्यस्वरूप निर्णय करना, उसे मात्र विकार जितना ही मत मान लेना, किन्तु शुद्ध चैतन्यस्वरूप निर्णय करना। निर्णय के काल में विकार भी वर्तता होने पर भी, मात्र उस विकार की तरफ नहीं झुककर शुद्ध चैतन्यस्वभाव की तरफ झुकना। जिसके सेवन से दु:ख मिटकर आनन्द प्राप्त हो - ऐसा विशुद्ध चेतनस्वरूप मैं हूँ - ऐसा निश्चित करना।
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